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अनुचित आलोचना के भय से हम कहां-कहां नहीं रहेंगे? लोगों से यों डरते रहेंगे तो साधुपन भी कैसे पालेंगे? जब हम दोष का सेवन नहीं करते हैं, तब लोगों की तथ्यहीन आलोचना से डरने की आवश्यकता नहीं है।'
बंधुओ ! प्रसंगवश मैंने यह बात स्पष्ट कर दी। हमारा मूल प्रतिपाद्य था-दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना। आप यह बात हृदयंगम कर लें कि आत्मविकास की इससे भिन्न कोई प्रक्रिया हो नहीं सकती। उपासना की बात भी इसमें अंतर्निहित है। हम सब ज्ञान, दर्शन और चारित्र में प्रतिक्षण वर्धमान होते रहें, यही हम सबके लिए काम्य है, यही श्रेयपथ है।
नोहर २१ फरवरी १९६६
आत्मविकास की प्रक्रिया
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