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सामाजिक दायित्व से बचने की मनोवृत्ति अधिक है।
किसी को गलतफहमी न हो, इसलिए इस संदर्भ में इतना स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि सामाजिक उपयोगिता के लिए कहीं कोई स्थान बनाया जाता है, फिर चाहे वह शैक्षणिक अपेक्षा से हो, विवाह की अपेक्षा से हो या धार्मिक उपासना की अपेक्षा से हो, उसमें दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट रहना चाहिए। यानी उसमें साधु-साध्वियों की भावना बिलकुल भी नहीं जुड़नी चाहिए | स्वामीजी ने जिस बात का निषेध किया था, वह निषेध आज भी वैसे ही है। उसमें किंचित भी न्यूनता नहीं है। उसकी अपेक्षा भी नहीं है, क्योंकि हमारा विश्वास आचार-शुद्धि में है, सुख-सुविधा में नहीं, पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि समाज अपनी अपेक्षा के लिए कोई भवन बनाए तो उसमें साधु-साध्वियां रह नहीं सकते। जिस प्रकार दूसरे - दूसरे मकानों में साधु-साध्वियां रहते हैं, उसी प्रकार उस मकान में भी रह सकते हैं। हालांकि रहें या न रहें, इसका निर्णय तो द्रव्य-क्षेत्र - -काल-भाव के आधार पर किया जाता है, तथापि अपनी मान्यता के अनुसार उसमें रहने में कोई कठिनाई नहीं है, दोष नहीं है ।
मनाही क्यों करूं
पिछले दिनों जोधपुर में समाज का एक भवन बना। एक भाई ने मुझसे कहा- 'आप साधु-साध्वियों को उस मकान में रहने की मनाही कर दें।' मैंने पूछा- 'क्यों ?' भाई बोला- 'साधु-साध्वियों का रहना ठीक नहीं लगता।' मैंने प्रश्न किया- 'ठीक नहीं लगने का कारण ? क्या वह मकान आप लोगों ने साधु-साध्वियों के लिए बनवाया है ?' भाई ने कहा - 'नहीं, साधु-साध्वियों की भावना से बिलकुल भी नहीं बनवाया है। हमें अपनी विभिन्न सामाजिक प्रवृत्तियों के लिए काफी दिनों से मकान की अपेक्षा महसूस हो रही थी। इसी दृष्टि हमने बनवाया है।' मैंने पूछा- 'जब मकान साधु-साध्वियों की भावना से नहीं बना है, तब साधु-साध्वियों के वहां रहने में आपत्ति क्या है ?' भाई बोला- ' आपत्ति यही है कि लोग कहेंगे कि मकान साधु-साध्वियों के लिए बनवाया गया है।' मैंने कहा - 'यदि भवन बनवाने के पीछे आप लोगों के मन में साधु-साध्वियों की दृष्टि से थोड़ा भी चिंतन होता तो मैं अपने साधु-साध्वियों को बिलकुल मनाही कर देता, किंतु जब यह स्थिति है ही नहीं, तब बिना मतलब मनाही क्यों करूं? हालांकि यह जरूरी नहीं कि साधु-साध्वियां वहां रहें ही । फिर लोगों की
आगे की सुधि लेइ
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