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स्थल के संदर्भ में है। अपने रहने के लिए बड़े-बड़े मकान लोग बनाते हैं, पर समाज में सामूहिक उपासना के लिए भी कोई स्थान अपेक्षित है, इस तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। फिर ध्यान जाता भी है तो उसे अनदेखा कर देते हैं। ऐसा न करने के पीछे पाप लगने का तर्क दिया जाता है। आचार्य भिक्षु के निषेध की ओट ली जाती है। यह बिलकुल ठीक है कि मकान के निर्माण में हिंसा होती है। वह कोई अहिंसक प्रवृत्ति नहीं है, इसलिए पाप लगना स्वाभाविक है। इसे इनकार नहीं किया जा सकता, पर यह तर्क देनेवालों से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या वैयक्तिक मकान बनाना धर्म का काम है; क्या उसमें हिंसा नहीं होती; पाप का बंधन नहीं होता; यह हिंसा होने और पाप लगने की बात सामूहिक उपासना-स्थल के संदर्भ में ही क्यों याद आती है। अब रही इस संदर्भ में आचार्य भिक्षु के निषेध की बात। मैं स्वीकार करता हूं कि आचार्य भिक्षु ने स्थानक बनाने का निषेध किया है, पर मैं जानना चाहता हूं कि आचार्य भिक्षु ने वैयक्तिक मकान बनाने की आज्ञा कहां दी है। जब यह स्पष्ट है कि उन्होंने इसकी आज्ञा नहीं दी है, तब वैयक्तिक मकान बनाए जाने बंद क्यों नहीं किए जाते? इस संदर्भ में मूलभूत समझने की बात यह है कि आचार्य भिक्षु का स्थानक या धर्मस्थान के निर्माण का निषेध करने के पीछे दृष्टिकोण क्या था। वस्तुतः उनके इस निषेध के पीछे दृष्टि यह रही है कि साधु-साध्वियों के उद्देश्य से धर्मस्थान का निर्माण नहीं होना चाहिए। उनके समय में साधुसाध्वियों की भावना से गांव-गांव में भवन बनाए जाते थे। बनाने में साधुसाध्वियों की खुली प्रेरणा और हस्तक्षेप होता था। उन पर साधु-साध्वियों का स्वामित्व होता था। यह प्रवृत्ति साध्वाचार की दृष्टि से सर्वथा अकल्पनीय है। अतः उन्होंने यह प्रवृत्ति अपने संघ में सर्वथा अमान्य कर दी, लेकिन श्रावक-श्राविकाएं अपनी धार्मिक प्रवृत्तियों के लिए कोई स्थान बनाएं, इसका उन्होंने कहीं निषेध नहीं किया। और वे निषेध कर भी कैसे सकते थे, जबकि वे इस तथ्य से अच्छी तरह अभिज्ञ थे कि गृहस्थ पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकता; अपनी पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय विभिन्न अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए उसे अनेक प्रकार की हिंसात्मक प्रवृत्तियां करनी पड़ती हैं; वह चाहकर भी उनसे सर्वथा बच नहीं सकता? मुझे लगता है, जो लोग सामूहिक उपासना के लिए धर्मस्थान नहीं बनाने की बात करते हैं, उनके मन में पाप का भय और आचार्य भिक्षु के सिद्धांत के प्रतिकूल आचरण की चिंता कम है, धन के प्रति आसक्ति ज्यादा है,
आत्मविकास की प्रक्रिया
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