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वायसराय बनूंगा!
कहा जाता है कि लार्ड कर्जन ने बचपन में संकल्प किया था कि मैं वायसराय बनूंगा। इस लक्ष्य के प्रति उसकी गहरी आस्था थी। इसलिए वह दिन में हजारों बार यह शब्द दोहराता। खाते, पीते, बैठते, सोते, चलते...."हर क्षण उसका यही चिंतन रहता। फलतः एक दिन वह वायसराय बनकर रहा। मैं तो बराबर कहता रहा हूं कि निष्ठा का बल अचिंत्य है।
निष्ठा के बाद ज्ञान के क्षेत्र में विकास होना चाहिए। ज्ञान बहुत ही ऊंचा तत्त्व है, पर आस्थाहीन ज्ञान व्यक्ति को भटका देता है। उस ज्ञान को जैन-दर्शन में अज्ञान माना गया है। वेदांत ने उसे अविद्या की संज्ञा दी है।
ज्ञान के बाद चारित्र का स्थान है। इन तीनों बातों से जो व्यक्ति संपन्न होता है, उसकी लक्ष्य-सिद्धि असंदिग्ध है। उपासना रूढ़ न बने
जैन-धर्म में उपासना और चारित्र-इन दोनों का महत्त्व है। उपासना काम की चीज है, बशर्ते कि तदनरूप आचरण होता रहे। परंतु उपासना तो आकाश से बातें करे और आचरण पाताल से टकराए, यह उचित नहीं है। यह अंतर पाटा जाना चाहिए। दूसरी बात है कि उपासना रूढ़ न बने। हालांकि रूढ़ होना एकांततः बुरा नहीं होता। एक मार्ग निकाला गया। हजारों मोटरें उस पर से होकर निकलने लगी और वह मार्ग रूढ़ हो गया। यह रूढ़ता बुरी नहीं कही जा सकती। लेकिन जो अतीत में उपयोगी रहा है, वह वर्तमान में अनुपयोगी होने पर भी मान्यता प्राप्त रहे, इस रूढ़ता में खतरा रहता है।
भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा है-'परंपरा को तोड़कर चलने में बहुत बड़ा खतरा है। नया मार्ग बना नहीं और पुराना छोड़ दिया, इस स्थिति में भटकने का भी भय रहता है।' - सुप्रसिद्ध विचारक जैनेंद्रकुमार जैन कहते हैं-'परंपरा परम पुरुषार्थ है। मैं इसका पृष्ठपोषक हूं, पर जहां यह विकास में रोड़ा बनती है, वहां इसे खत्म कर देना चाहिए।' परंपरा और विवेक
बंधुओ! मैं भी परंपरा को बहुत मानता हूं, पर उसे नहीं,जो गली
आत्मविकास की प्रक्रिया
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