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८ : आत्मविकास की प्रक्रिया
हम साधक हैं। साधक का उद्देश्य होता है-आत्मविकास करना। आत्म-विकास के लिए तीन बातें आवश्यक हैं। उनमें पहली बात हैनिष्ठा। चिंतनपूर्वक स्वीकार कर जिस पथ पर साधक चले, उसके प्रति उसके मन में अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। वह सोचे-इणमेव निग्गंथं पाक्यणं सच्चं अणुत्तरं केवलं पडिपुण्णं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। यानी यही निग्रंथ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, एक है, प्रतिपूर्ण है, न्याययुक्त है, शुद्ध है, शल्यों को काटनेवाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, निर्याण और निर्वाण का मार्ग है, यथार्थ है, अविच्छिन्न है, सब दुःखों का नाश करनेवाला है। इस मार्ग पर चलनेवाला प्राणी सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है, सब दुःखों का अंत कर लेता है। संशयात्मा विनश्यति
___ मैं मानता हूं, इतनी गहरी/दृढ़/अटूट निष्ठावाला व्यक्ति निश्चित रूप से अपना लक्ष्य प्राप्त करता है। इसके विपरीत जो अपने लक्ष्य के प्रति संदिग्ध रहता है, वह सफल नहीं हो सकता। संशयात्मा विनश्यति-गीता का यह सूत्र भी इसी तथ्य की ओर संकेत करता है।
आचारांग में कहा है-वितिगिच्छ समावन्नेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि-आशंकित मन समाधिस्थ नहीं हो सकता। संदेह पहले होना चाहिए, जिसे हम दूसरे शब्दों में जिज्ञासा कह सकते हैं। जांच के बाद जो मार्ग स्वीकार कर लिया, उसके प्रति बाद में अनास्था रखनेवाला भटक जाता है। इसलिए जांच-परखकर स्वीकार किए गए मार्ग पर व्यक्ति को दृढ़ निष्ठा और आत्म-विश्वास के साथ कदम बढ़ाने चाहिए।
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