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________________ तो उन्होंने कहा- 'ज्योतिष की और और सब बातें जब मिली हैं तो यह आयु की बात क्यों नहीं मिलेगी ? यह भी अवश्य मिलनी चाहिए। पर उनका यह विश्वास फलित नहीं हो सका और वे चतुर्विध धर्मसंघ को सनाथ बनाए बिना ही स्वर्ग पधार गए । ज्योतिष को आधार मानकर कोई संथारा कर दे और उसमें फर्क रह जाए तो बहुत विकट स्थिति पैदा हो सकती है, अनर्थ भी हो सकता है। इसलिए कोई दायित्वशील और समझदार व्यक्ति ज्योतिष की बात पर अति विश्वास नहीं कर सकता, नियति के आधार पर नहीं चल सकता । उसके आधार पर अपने करणीय में ढील नहीं कर सकता । मैं आप लोगों से ही पूछना चाहता हूं कि यदि सब कुछ नियति ही है तो मनुष्य को विवेक क्यों मिला है; चिंतन के लिए यह मस्तिष्क क्यों प्राप्त हुआ है। आपके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही मैं कहना चाहता हूं कि व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर यही है कि वह नियति को स्वीकार करता हुआ भी उसे बहुत मूल्य न दे, उस पर अवलंबित होकर अपना पुरुषार्थ कमजोर न करे । अस्तु, हर भाई-बहिन यह समझे कि शरीर को कष्ट देना धर्म नहीं है। धर्म की साधना है-कष्ट आएं तो उन्हें समभाव से सहना । जानकर कड़वा तुंबा खाना, धूप में आतापना लेना, जानबूझकर शेर का सामना करना आदि बातें आज के युग में हठयोग मानी जाती हैं। ऐसी साधना मात्र उन्हीं व्यक्तियों के लिए हो सकती है, जो दृढ़ शक्तिसंपन्न हैं । वे कष्ट झेलकर स्वयं का परीक्षण करते हैं कि हमारी आत्मा में दृढ़ता है या नहीं । जैन धर्म समन्वय के सिद्धांत को महत्त्व देता है, इसलिए एकांततः हठयोग को अच्छा या बुरा नहीं मानता। एक मुनि एक मास की तपस्या करता है। पारणे के दिन चावल के एक दाने का आहार करता है और दूसरे दिन से फिर एक मास की तपस्या शुरू कर देता है। एक दूसरा साधु रोजाना मनोज्ञ भोजन करता है और ध्यान साधना में लगा रहता है। इन दोनों मुनियों में दूसरा मुनि पहले मुनि से आगे बढ़ सकता है। इसी प्रकार कभी-कभी घंटों ध्यान करनेवाले मुनि की अपेक्षा एक नवकारसी करनेवाला मुनि बहुत आगे बढ़ सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि सोलह प्रहर की कड़ी तपस्या और सात लव का ध्यान दोनों तुला पर एक बराबर उतरते हैं। इसलिए साधना की बात सापेक्ष दृष्टि से समझना आवश्यक है। सापेक्ष दृष्टि रखनेवाला भटकाव से बच जाता है। नोहर, २१ फरवरी १९६६ नियति और पुरुषार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only ४७ www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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