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________________ कठिनाई नहीं कि साधक अपने स्वीकृत साधना-पथ पर चलने की दूसरों को प्रेरणा दे; उसकी उपयोगिता और उपादेयता से परिचित करवाए, पर बलात किसी पर अपनी रुचि या चयन थोपना अनधिकृत चेष्टा है, एक प्रकार की हिंसा है। अध्यात्म के क्षेत्र में इसे कभी मान्यता प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए मैंने कहा कि विभिन्न रुचियां हैं और विभिन्न साधना के क्रम हैं। जिसे जो क्रम रुचिकर लगे, वह उसे स्वीकर करके चले। मूलभूत बात है मंजिल पर पहुंचने की। जो कोई मार्ग व्यक्ति को मंजिल तक पहुंचाता है, वह उपादेय है, सही है। इसके ठीक विपरीत जिस पथ पर चलकर व्यक्ति उजाड़ में फंस जाता है, भटक जाता है, वह वास्तव में सही पथ नहीं है, इसलिए उपदेय भी नहीं है। - जैन-दर्शन की मान्यता है कि सभी विचार अपेक्षाभेद से सही हो सकते हैं, बशर्ते कि उनमें आग्रह न हो। इसी के समानांतर सभी प्रकार के विचार अयथार्थ हो सकते हैं, यदि उनके पीछे आग्रह जुड़ा हुआ है। वस्तुतः वैचारिक आग्रह बहुत ही खतरनाक तत्त्व है। जहां वैचारिक आग्रह जागता है, वहां सत्य सो जाता है। एक अपेक्षा से सत्य अनाग्रह का ही नाम है। भगवान महावीर ने अनाग्रह पर बहुत बल दिया है। अनेकांत का सिद्धांत उसी अनाग्रह पर आधारित है। मोक्ष-प्राप्ति और संप्रदाय मुझसे कई बार पूछा जाता है कि क्या मोक्ष की प्राप्ति के लिए जैनत्व की मोहर लगाना जरूरी है। इस प्रश्न के उत्तर में मैं कहा करता हूं कि मोक्ष-प्राप्ति और किसी धर्मसंप्रदायविशेष की मोहर लगाने का परस्पर कोई सीधा संबंध नहीं है। व्यक्ति किसी धर्म-संप्रदायविशेष से संबद्ध न होकर भी यदि सन्मार्गी है, सत्यनिष्ठ है, प्रामाणिक है, नैतिक है, चरित्रवान है तो उसकी मोक्ष-प्राप्ति में कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती। इसके विपरीत यदि वह उन्मार्ग पर चल रहा है, उसका जीवन दुर्व्यसनों का अड्डा है, आचार-विचार शुद्ध नहीं है तो चाहे वह किसी धर्मसंप्रदाय की मोहर क्यों न लगा ले, उसे मोक्ष नहीं मिल सकता। मेरी दृष्टि में संप्रदायविशेष की मोहर लगानी ही चाहिए और नहीं ही लगानी चाहिए ये दोनों ही बातें ऐकांतिक आग्रह प्रकट करती हैं। मोहर लगाने की बात मैं एकांततः अनुपादेय नहीं मानता। जहां मंजिल तक पहुंचने के मार्ग अनेक होते हैं और व्यक्ति अपरिपक्व स्थिति में अहिंसा : एक विश्लेषण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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