________________
४ : अहिंसा : एक विश्लेषण
धर्म एक है, पर उसके रूप अनेक हैं। जैसे आकाश के एक होने पर भी घटाकाश, पटाकाश आदि भेदों से उसे अनेक भागों में बांटा जाता है, वैसे ही धर्म एक होने पर भी उसे अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षांति आदि भेदों की प्रधानता से विवेचित किया जाता है। इसकी एक बड़ी उपयोगिता है। धर्म के एक रूप का ही विवेचन करने से वह सबके लिए उपयोगी नहीं हो सकता, क्योंकि लोगों की रुचियां एक सरीखी नहीं होतीं। और तो क्या, खाद्य व पेय की रुचि में भी भिन्नता पाई जाती है। बंगाल और बिहार में चावल अधिक मात्रा में खाया जाता है, जबकि राजस्थान में बाजरे का उपयोग ज्यादा होता है।
धर्म के विभिन्न रूप
धर्म के क्षेत्र में भी रुचि सदृशता की बात नहीं हो सकती। कोई साधक ध्यान की साधना करना चाहता है तो कोई जप में रस लेता है। किसी को अध्ययन-अध्यापन का काम अच्छा लगता है तो किसी की रुचि खाद्य-संयम में होती है। कोई भक्ति रस में लीन रहता है तो किसी का मन सेवा में खूब लगता है। साधना की ये विभिन्न भूमिकाएं हैं। इनमें से एक ही भूमिका पर चलने का आग्रह नहीं होना चाहिए। एक व्यक्ति साधना के जिस मार्ग पर चलता है, दूसरा उसका ही अनुकरण करे, यह एकांत आग्रह गलत होता है ।
साधक अपने साधना पथ का निर्धारण या चयन करने में स्वतंत्र है। वह अपनी रुचि के अनुसार अपना साधना पथ निर्धारित कर सकता है, पर इसके साथ ही वह दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक भी न बने, यह नितांत आवश्यक है। जैसे वह अपने साधना पथ का निर्धारण या चयन करने में स्वतंत्र है, वैसे ही हर साधक स्वतंत्र है। इस स्थिति में किसी की स्वतंत्रता बाधित करनेवाला साधक नहीं, बाधक है। अलबत्ता, इसमें कोई
१६•
आगे की सुधि ले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org