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________________ ५३ : समता का दर्शन सिद्धांत और व्यवहार जैन-दर्शन समता का दर्शन है। इस दर्शन ने समता की जो व्यापक बात कही है, वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। साम्यवाद मनुष्य-मनुष्य के बीच समता की बात करता है, जबकि जैन-दर्शन प्राणिमात्र के प्रति समता की बात करता है। आप कह सकते हैं कि जब मनुष्य-मनुष्य की समता की बात भी संभव नहीं हो रही है, समता रखनेवालों के प्रति समता रखना भी कठिन हो रहा है, तब प्राणिमात्र के प्रति समता का सिद्धांत व्यवहार्य कैसे हो सकता है। मैं मानता हूं, समता के सिद्धांत का पठन, वाचन, उच्चारण, स्पष्टीकरण या विवेचन ही सुगम है, उसे व्यवहार में लाना सुगम नहीं है। वह तो कठिन ही है। यदि वह सुगम हो तो व्यवहार्य बनने में कोई समस्या ही न रहे; और जहां यह सिद्धांत व्यवहार्य बन जाए, फिर किसी प्रकार की उलझन शेष नहीं बचती। सिद्धांत को व्यवहार्य बनाने के संदर्भ में एक बात गहराई से समझने की है। हर-एक सिद्धांत सबके लिए समान रूप से होता है, पर व्यवहार्य सबके लिए समान रूप से नहीं होता। व्यापार अर्थार्जन का मार्ग है, पर सबके लिए वह व्यवहार्य कहां है? यदि सबके लिए वह व्यवहार्य होता तो क्या सभी व्यापारी नहीं बन जाते? फिर यदि सारे व्यापारी बन भी जाते तो सभी अर्थार्जन कर पाते, यह क्या जरूरी है? यही बात समता के सिद्धांत के संबंध में है। समता का सिद्धांत सबके लिए है। जो भी इसे व्यवहार्य बनाए, उसे यह शांति देनेवाला है, लेकिन सब इसे व्यवहार्य नहीं बना पाते हैं। कुछ लोग ही इसे व्यवहार्य बना पाते हैं। हां, जो व्यवहार्य बनाते हैं, उनके लिए यह वरदान साबित होता है। उनका जीवन प्रकाश से भर जाता है, किंतु जो इसे व्यवहार्य नहीं बना पाते, उनके लिए यह वरदान नहीं बन पाता। उनके जीवन में वह प्रकाश नहीं कर पाता। समता का दर्शन ३०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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