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________________ घृणा का भाव कम हो रहा है। वे उसे सुख-शांतिमय जीवन के आधार के रूप में जानने-पहचानने लगे हैं। वस्तुतः धर्म तो जीने की कला का नाम ही है। जो व्यक्ति यह कला सीख लेता है, वह उत्कृष्ट जीवन जीने की कला सीख लेता है। नव-नवोन्मेष अपेक्षित हैं। ___ बंधुओ! धर्म को जन-आकर्षण का केंद्र बनाए रखने के लिए यह नितांत अपेक्षित है कि उसमें नए-नए उन्मेष आते रहें। वह तत्त्व रूढ़ हो जाता है, जिसमें समयानुसार परिवर्तन/संशोधन न हो। आप देखें, जिस मकान की साल-दो साल से लिपाई-पुताई होती रहती है, वह नया-सा लगता है। उसके प्रति अनाकर्षण पैदा नहीं होता। पर उसी मकान की यदि चालीस-पचास वर्ष तक संभाल न हो तो वह खंडहर में बदल सकता है। उसके प्रति आकर्षण नहीं रहता। इसलिए मैंने कहा कि यदि धर्म को जनआकर्षण का केंद्र बनाए रखना है तो उसे बार-बार संवारना जरूरी है, उसमें नए-नए उन्मेष लाना जरूरी है। अणुव्रत इसी दिशा में एक प्रयत्न है, धर्म का मौलिक स्वरूप सुरक्षित रखते हुए उसे युगीन अपेक्षाओं और परिस्थितियों के अनुरूप ढालने का प्रयास है। आज के युग की समस्याओं का वह समुचित समाधान प्रस्तुत करता है। मैं मानता हूं, जो धर्म युगीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत न कर सके, उसे जनता अस्वीकार कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं। इसलिए उसकी प्रासंगिकता बनाए रखना नितांत अपेक्षित है। जो धर्म अपनी प्रासंगिकता बनाए रखता है, वह जीवित धर्म है। उसे कभी कोई नकार नहीं सकता। सौभाग्य से विरासत के रूप में हमें यह दृष्टिकोण प्राप्त हुआ है। उसका ही यह सुफल है कि हम अणुव्रत का कार्यक्रम प्रस्तुत कर सके। अपेक्षा है, इस कार्यक्रम का यथार्थता के धरातल पर मूल्यांकन हो और जन-जन धर्म के इस जाग्रत रूप को अपने जीवन का अंग बनाए। सरदारशहर २८ मई १९६६ .३०६ आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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