SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसके मुंह में पड़ी और तीसरी बूंद की प्रतीक्षा शुरू हो गई। इस क्रम से वह आगे से आगे मधु-बूंद के लिए प्रतीक्षा करने लगा। उसकी आसक्ति इस सीमा तक जग गई कि वह मौत का साक्षात करानेवाली वे परिस्थितियां भी भूल सा गया । उसी समय आकाश-मार्ग से जाते हुए एक विद्याधर ने उसे देखा । उसकी स्थिति पर तरस खाकर वह अपना विमान लेकर उसके पास आया और बोला- 'भैया ! तुम्हें अनेकानेक मुसीबतों से घिरा देखकर दया आ रही है। आओ, इस विमान में बैठो, मैं तुम्हें सकुशल तुम्हारे घर पहुंचा देता हूं।' वह विपद्ग्रस्त व्यक्ति बोला- 'आप निस्वार्थ उपकारी हैं। मुझ पर आपकी बड़ी कृपा हुई, पर दो-चार क्षण रुकिए।' विद्याधर ने पूछा- 'क्यों, क्या बात है ? रुकने का प्रयोजन ?' वह व्यक्ति बोला'प्रयोजन विशेष नहीं है। बात इतनी सी है कि मधुमक्खियों के छत्ते से शहद की बूंद नीचे गिरनेवाली है। उसमें बड़ा मिठास है। उसका स्वाद लेकर मैं आपके साथ चलूंगा।' चारों तरफ मौत का भय और एक बूंद के लिए इतनी आसक्ति ! देखकर विद्याधर चकित रह गया। बावजूद इसके, दयार्द्र बनकर वह रुक गया। अगले क्षण ही शहद की बूंद टपककर उस व्यक्ति के मुंह में गिर पड़ी। विद्याधर ने अब उसे चलने के लिए पुनः कहा, पर वह व्यक्ति तब तक अगली बूंद के लिए लालायित हो चुका था। उसने फिर प्रतीक्षा करने की बात कही। विद्याधर ने फिर प्रतीक्षा की। इस क्रम से विद्याधर उसे चलने के लिए कहता रहा और वह अगली मधु-बूंद की लालसा व्यक्त करके रुकने के लिए निवेदन करता रहा । आखिर विद्याधर को झुंझलाहट आ गई। उसने कहा- 'मूर्ख, आते हो या नहीं ? मैंने आज तक तुम जैसा कर्महीन और बुद्धिहीन व्यक्ति नहीं देखा। एक मधु-बूंद के लिए मारणांतिक मुसीबतें भूल रहे हो ! पर विद्याधर के इन शब्दों का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह अगली मधु-बूंद की अपनी लालसा छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ । विद्याधर को यह स्पष्ट समझ में आ गया कि इसका मरना अब सुनिश्चित है। जब यह स्वयं मौत से बचना नहीं चाहता, तब मैं क्या, कोई इसे नहीं बचा सकता। बस, इस चिंतन के साथ वह तत्काल वहां से रवाना हो गया। दुःख-मुक्ति का आवाहन - अणुव्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only २९७ www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy