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________________ खुशियों को अभिव्यक्ति देने के लिए मंगल गीत गाए जाते हैं।' थावच्चापुत्र ने अगली जिज्ञासा की-'मां! जब मैं जन्मा था, तब भी क्या ऐसे ही गीत गाए गए थे?' मां ने कहा-'पुत्र! कहां पर्वत और कहां राई! कहां अपना घर और कहां पड़ौसी का घर! जब तेरा जन्म हुआ था, तब तो जाने कितने दिनों तक ऐसे सुहावने गीत गाए गए थे।' थावच्चापुत्र के मन में उन गीतों का इतना आकर्षण हो गया कि उनका रसास्वादन करने के लिए वह पुनः छत पर चला आया, पर इस बार उसे आनंद नहीं मिला। गीतों में सरसता की जगह विषाद था। स्वर और लय में अंतर था। वह उन्हीं पैरों वापस माता थावच्चा के पास आकर बोला-'मां! अब तो गीत पहले जैसे नहीं हैं। वे कानों को अच्छे नहीं लगते। वह मीठी-मीठी आवाज कहां गायब हो गई?' थावच्चा ने कहा'जिस बच्चे को पाकर पड़ौसी के घरवाले खुश हो रहे थे, वह बच्चा अब मर गया है। उस बच्चे के विरह में वे लोग व्याकुल हो रहे हैं, विलाप कर रहे हैं।' थावच्चापुत्र ने पूछा-'मां! क्या सभी लोग मरते हैं?' थावच्चा ने एक अप्रिय सचाई प्रकट करते हुए कहा-'हां, जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः यानी जो जन्मा है, उसका मरना निश्चित है।' थावच्चापुत्र के चेहरे पर भय-व्यापने लगा। उसने माता थावच्चा से पूछा- क्या तुम भी मरोगी?' थावच्चा बोली-'बेटे! मैं क्या, संसार का कोई भी प्राणी मौत का अपवाद नहीं हो सकता। तीर्थंकर भी नहीं।' थावच्चापुत्र आशंकित स्वर में बोला-'फिर क्या मुझे भी मरना होगा?' थावच्चा ने जरा नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा-'ऐसी बात मुंह पर मत ला। ऐसी बात फिर मुंह पर लाया तो मैं तेरे से बोलना छोड़ दूंगी।' थावच्चापुत्र बोला-'अच्छा मां! यदि तुम्हें बुरा लगता है तो मैं इस संदर्भ में कुछ भी नहीं पूछंगा, पर एक बात तो बताओ कि मौत से बचने का कोई उपाय भी है क्या ?' थावच्चा बोली-'बेटे! और तो कोई उपाय नहीं है। बस, एक उपाय है और वह है अर्हत अरिष्टनेमि की शरण। उनकी शरण स्वीकार करनेवाला जन्म-मौत की अनंतकालीन श्रृंखला से छूट सकता है।' जन्म और मृत्यु के इस भयावह भंवर की बात सुन बच्चे का दिल दहल उठा। वह संसार से विरक्त हो गया और प्रभु अरिष्टनेमि के चरणों में पहुंचकर प्रव्रजित हो गया। बंधुओ! ऐसे प्रसंगों की परिचर्चा से पापभीरु लोगों की आत्मा जग • २८८ - - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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