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बंधुओ! अनुस्रोत और प्रतिस्रोत की बात मैंने प्रारंभ में कही थी। दीक्षा स्वीकार करना अनुस्रोत से मुड़कर प्रतिस्रोत की ओर गति करना है, क्योंकि दीक्षा का जीवन कठिनाइयों का जीवन है। लोकभाषा में दीक्षा कांटों पर चलना है। दीक्षा में भी जैन-धर्म का मार्ग ज्यादा कठिन है। फिर तेरापंथ की दीक्षा तो कठिन से भी कठिन है, महाकठिन है। संपूर्ण त्याग के साथ-साथ अपनी सारी इच्छाएं गुरु-इच्छा में विलीन कर देनी होती हैं। आज के इस सुख-सुविधाप्रधान माहौल और अनुशासनहीनता के युग में यह कितना कठिन है, इसका अंदाजा आप स्वयं कर सकते हैं, पर एक बात अवश्य है। कंठिन उसे ही लगता है, जो असंयममय जीवन जीता है, जिसकी आत्मा अनुशासित नहीं है। संयम/स्वानुशासन का जिन्हें रसास्वाद मिल चुका है, उन्हें यह कठिन नहीं लग सकता, बल्कि वे तो इसमें परमानंद की अनुभूति करते हैं। इसलिए जो इसमें रच-पच जाते हैं, उन्हे संसार का कोई भौतिक प्रलोभन अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर पाता। __मैं मानता हूं, संपूर्ण त्याग की बात श्रेयस्कर होने पर भी सबके लिए स्वीकार्य नहीं हो सकती। सब साधु जीवन अंगीकार नहीं कर सकते, पर एक सीमा तक त्याग का मार्ग तो हर-कोई स्वीकार कर ही सकता है। महाव्रती तो कोई-कोई ही बन सकता है, पर अणुव्रती हरकोई बन सकता है। अणुव्रती बनने का अर्थ है-त्याग की दिशा में प्रयाण। मैं मानता हूं, संपूर्ण त्याग को आदर्श मानकर यदि इस सीमा तक भी त्याग का पथ स्वीकार किया जाता है तो यह व्यक्ति के भविष्य को संवारनेवाला सिद्ध होता है, उसके जीवन में सुख और शांति का मार्ग प्रशस्त करनेवाला होता हैं।
रायसिंहनगर २ मई १९६६
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