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________________ सुखेच्छु हैं? पुरुष बंधन-मुक्ति चाहते हैं तो स्त्रियां भी बंधन नहीं चाहतीं। उन्हें भी मुक्ति प्रिय है। यदि स्त्री को बंधन-मुक्ति/स्वतंत्रता का यह अधिकार नहीं दिया जाता है तो उसके साथ अन्याय होता है। हां, किसी को बहकाकर या फुसलाकर भोगों से वंचित रखना अनुचित है, धोखा है। पर विरक्त होने के बाद किसी को विकास के मार्ग में नहीं आने देना बहुत बड़ा पाप है। अतः त्याग के मार्ग में स्त्री और पुरुष का भेद नहीं होना चाहिए। अभी हमने रुक्मिणी बहन को सुना। ये दो बहिनें बैंगलोर से आई हैं और इन्होंने साध्वियों के जीवन से ब्रह्मचारिणी रहने की प्रेरणा पाई है। ये इसी भूमिका में रहती हुई जीवन में आगे बढ़ना चाहती हैं। खुद अणुव्रती हैं और अपने स्कूल की अस्सी फीसदी लड़कियों को अणुव्रती बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। कुछ लोगों का प्रश्न है कि लड़की को क्या पता कि भोग में क्या सुख है। इसलिए दीक्षा से पूर्व संसार का अनुभव करना चाहिए, परंतु मैं सोचता हूं, ऐसा करना कोई जरूरी नहीं है। एक व्यक्ति चोरी का त्याग करता है। उसके लिए क्या यह आवश्यक है कि वह चोर बनकर ही साहूकार बने? जब नहीं, तब भोगी बनकर ही त्यागी होना क्यों जरूरी है? आपने समाचार-पत्र में पढ़ा होगा कि बारह वर्ष की एक लड़की ने एक बच्चे की निर्मम हत्या कर दी। जब एक लड़की क्रूर बन सकती है, हिंसा कर सकती है, तब अहिंसक क्यों नहीं बन सकती? संयमी क्यों नहीं बन सकती? निश्चय ही इसमें कोई बाधा नहीं है। बंधुओ! यों तो त्याग हर युग में ही स्तुत्य, प्रशस्य, काम्य, आदरणीय और अनुमोदनीय है, पर आज के इस भौतिकताप्रधान युग में तो उसका मूल्य बहुत ही अधिक है। सचमुच ही वे लोग बधाई के पात्र हैं, जो त्याग का मार्ग सहर्ष स्वीकार करते हैं। युग की बात मैंने इसलिए कही कि काल का भी अपना एक प्रभाव होता है। सत्युग में मनुष्य सहज अच्छा होता है, जबकि कलियुग की स्थिति इसके विपरीत होती है। सत्युग में इस प्रतिज्ञा का बहुत मूल्य नहीं होता कि मैं सत्य बोलूंगा, पर आज के कलियुग में इसका बहुत मूल्य है। अस्तु, त्याग का पथ अंगीकार करने का उदाहरण आपके सामने है। इसे देखकर उन लोगों के सिर सहज श्रद्धाप्रणत हो रहे हैं, जिन्होंने त्याग और संयम का यह अभ्यास नहीं किया है। शांति-सुख का मार्ग-त्याग २७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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