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धार्मिक व्यक्ति के बारे में ऐसा कहा जा सकता है। इसलिए सब-कुछ मिलने पर भी जो व्यक्ति असंतुष्ट रहता है, वह धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म जीवन-व्यवहार का तत्त्व है
धर्म का संबंध अंतरात्मा से है। अतः धर्म है तो वह जीवन-व्यवहार में आए। वह धन की तरह छिपाकर रखने की चीज नहीं है, पर आज स्थिति ऐसी नहीं है। मैंने व्यापारी, कर्मचारी, विद्यार्थी, महिला, पुरुष आदि सभी वर्गों को निकट से देखा है। मुझे लगता कि हर वर्ग के लोगों का व्यवहार धर्म से प्रतिकूल हो रहा है। यह मेरे किस काम का!
हिसार की बात है। मेवाड़ का एक भाई मेरे सामने था। वह अपने पुत्र को दीक्षा देने की प्रार्थना कर रहा था। मैंने उससे पूछा-'यह तुम्हारा पुत्र नहीं है क्या ? इसे दीक्षा क्यों दे रहे हो?' वह भाई अपनी भाषा में बोला-'ओ म्हारै कई काम रो नहीं रह्यो।' मतलब कि उस लड़के ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं जीवन में कभी झूठ नहीं बोलूंगा। जो इस प्रतिज्ञा को लेकर दुकान पर बैठता है, वह व्यापार नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि आज के व्यापारी की सोच यह बन गई है कि झूठ बोलने की कला नहीं तो सब कलाएं धूलि के समान हैं। इस स्थिति में सत्य के प्रति आस्था कैसे टिक सकती है? यही स्थिति समाज के दूसरे-दूसरे वर्गों की है। सभी वर्ग कुछ कमो-बेश बुराइयों में फंसे हैं। मैं मानता हूं, बुराई करने से भी ज्यादा चिंताजनक स्थिति यह है कि लोगों की आस्था यह हो रही है कि गलत काम किए बिना हमारा काम नहीं चल सकता। कार्य और कारण
यह इस बात का निदर्शन है कि धार्मिक जगत की स्थिति अच्छी नहीं है। धर्म अपने मूल स्वरूप में नहीं है। उसमें विकृतियां आ गई हैं। आज समाज में जितना दुःख है, अशांति है, वह सब इसका ही परिणाम है। मैं देखता हूं, लोग दुःख नहीं चाहते, पर उसका कारण नहीं मिटाते। मैं नहीं समझता कि कारण को मिटाए बिना कार्य/परिणाम को कैसे मिटाया जा सकता है।
कल ही एक सरदार अध्यापक ने कहा-'आपने जो प्रवचन दिया, वह तो सार्वजनिक है। मैं आपसे कुछ व्यक्तिगत पूछना चाहता हूं। मैंने
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आगे की सुधि लेइ
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