SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चीज में नकली चीजों की मिलावट होती है। यदि असली धर्म में भी नकली धर्म की मिलावट हो गई है तो उसका स्वरूप शुद्ध कैसे होगा? वह आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त कैसे कर सकेगा? अन्यान्य नीतियों पर अपना अंकुश रखने में सक्षम कैसे हो सकेगा? इसलिए अपेक्षा इस बात की है कि इस दृष्टि से सूक्ष्मता से जांच-पड़ताल की जाए। आप पूछ सकते हैं कि जांच-पड़ताल कैसे की जाए। इसकी जांच-पड़ताल का तरीका यही है कि हम धार्मिक लोगों का जीवन देखें। हम गहराई से ध्यान दें कि वे लोग धर्म की बातें ही करते हैं या सही अर्थ में धार्मिक हैं भी। मेरी दृष्टि में सच्चा धार्मिक वह है, जिसका जीवन पवित्र है, जो अपने मन में सहज शांति और तोष का अनुभव करता है। धार्मिक कहलाता हुआ भी जो गलत आचरण करता है, अशांति और असंतोष का वेदन करता है, वह सही अर्थ में धार्मिक नहीं है। दूसरे शब्दों में धर्म उसके जीवन में संस्कारगत नहीं हुआ है। अशांति के दो कारण ____ मैं सोचता हूं, यदि धार्मिक व्यक्ति अशांत रहता है तो उसके पीछे दो संभावित कारण हैं। पहला कारण यह है कि उसने धर्म का सही स्वरूप समझा नहीं है। धर्म का मार्ग छोड़कर उसने कोई दूसरा ही मार्ग पकड़ लिया है। दूसरा कारण यह है कि धर्म के द्वारा जो मिलता है, वह उसे काम्य नहीं है और जो उसे काम्य है, वह पूर्व संचित प्रबल पाप के उदय से उसे मिलता नहीं है। फलतः वह अशांत हो जाता है। धर्म का फलित-आत्मतोष लोग चाहते हैं कि धर्म से धन मिले, परिवार मिले, सुख-सामग्री मिले, अदालत में झूठा मुकदमें जीतें, हत्या करके भी बरी हो जाएं..."पर इन चीजों से धर्म का कोई संबंध नहीं है। भौतिक आनंद धर्म का सीधा देय नहीं है। धर्म का फलित है-आत्मतोष। धार्मिक व्यक्ति संतुष्ट रहता है। उसे कोई भौतिक आकर्षण लुभा नहीं सकता। इसलिए आप यह बात हृदयंगम करें कि धन, इज्जत, जमीन, जायदाद आदि की संपन्नता धार्मिक व्यक्ति की पहचान नहीं है। धार्मिक की पहचान है-आत्मतोष। मेरा दृढ़ विश्वास है कि संसार को कोई भी व्यक्ति अपनी सुख-समृद्धि के आधार पर मेरे आत्मतोष और आनंद की तुलना में नहीं आ सकता। यह बात मात्र मेरी नहीं है, अपितु किसी धर्म का तूफान २५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy