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लड़का पोटली लेकर अपने चाचा के पास पहुंचा और बोला- 'मेरी मां ने यह पोटली आपके पास भेजी है। इसमें कीमती रत्न हैं। आप इन्हें बेचकर मुझे रुपए दे दें।' चाचा भी जौहरी था। वह अपने घर की और अपने बड़े भाई की स्थिति अच्छी तरह से जानता था । उसने भतीजे से वह पोटली खोलने के लिए कहा। भतीजे ने पोटली खोली । चाचा ने उस पोटली के रत्नों पर एक नजर डाली और बोला- 'देखो, तुम अपनी मां से बता देना कि आजकल रत्नों का बाजार मंदा है, इसलिए अभी इन्हें बेचना ठीक नहीं है। जब बाजार तेज होगा, तब बेच देंगे।' ऐसा कहते हुए उसने पोटली वापस भिजवा दी और भतीजे को जवाहरात - विद्या का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। दो वर्षों में वह अच्छा जौहरी बन गया। अब चाचा ने अवसर देखा। उसने भतीजे से कहा- 'अभी रत्नों का बाजार तेज है । तुम जाओ और वह पोटली ले आओ । '
लड़का घर गया। उसने मां से पोटली मांगी। मां ने पोटली पुत्र को संभला दी । पुत्र चूंकि अब स्वयं परीक्षक था, इसलिए पोटली हाथ में आते ही उसके मन में रत्न देखने की गुदगुदाहट सी पैदा होने लगी। वह स्वयं को रोक नहीं पाया। चाचा के पास ले जाने से पूर्व उसने वह पोटली खोली और खोलते ही सारे रत्न कूड़ादान में डाल दिए। मां सामने ही बैठी थी। उसने तेज आवाज में कहा - ' अरे मूर्ख ! यह क्या कर रहे हो ! क्या पागल हो गए हो ! क्या रत्न यों फेंके जाते हैं!' लड़का बोला- 'मां ! ये रत्न नहीं हैं, कांच के टुकड़े हैं।' मां ने कहा- 'यह कैसे संभव है ! लगता है, उस दिन तुम्हारे चाचाजी ने इन्हें बदल लड़के ने मां को बीच में ही टोकते हुए कहा- 'मां ! तुम्हारे मुंह ऐसी बात शोभा नहीं देती। चाचाजी ने तो पोटली के हाथ तक भी नहीं लगाया था। पोटली तो मैंने ही खोली थी और वापस मैंने ही बांधी थी । '
थोड़ी देर पश्चात लड़का चाचा के पास पहुंचा। भतीजे को खाली हाथ आया देखकर उसने पूछा- 'क्या पोटली नहीं लाए ? रत्न बेचने नहीं हैं क्या ?' छूटते ही भतीजा बोला - 'चाचाजी ! कौन-से रत्न ! वे रत्न तो घर के कूड़ादान की शोभा बढ़ा रहे हैं। वे रत्न नहीं, कांच के टुकड़े हैं।' चाचा ने कहा- 'तब तो तुम कुशल जौहरी बन गए हो ।' भतीजे ने जरा हैरानी के स्वर में पूछा - 'चाचाजी ! ये कांच के टुकड़े हैं, यह बात आपने उसी दिन क्यों नहीं बताई ?' चाचा ने कहा - ' बता तो देता, पर मेरी बात पर
आगे की सुधि लेइ
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