SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सकता; और जब तक यह व्यामोह नहीं टूटता, तब तक व्यक्ति शांति की जिंदगी नहीं जी सकता। मुक्ति की बात तो फिर बहुत आगे रह जाती है। धनवान की मुक्ति ईसा के पास एक अमीर व्यक्ति आया और उसने मुक्ति का मार्ग पूछा। ईसा ने कहा- क्या तुम सचमुच ही मुक्ति चाहते हो? यदि हां तो अपना सारा धन गरीबों में बांट दो और अकिंचन बनकर मेरे पास आओ।' वह व्यक्ति वहां से उठकर रवाना हुआ, पर पांच-सात कदम भी बड़ी मुश्किल से चला होगा कि लौट आया और बोला-'मैं अपना सारा धन गरीबों में बांट दूं और फिर भी मुक्ति नहीं मिली तो?' । ईसा ने सुना और बोले-'सुई की नोक से एक ऊंट का निकल जाना फिर भी संभव है, पर धनवान की मुक्ति संभव नहीं है!' अपरिग्रह : मूर्छा बंधुओ! यही बात मैं आपसे कह रहा था। अर्थ के प्रति जब तक आसक्ति नहीं टूटती, मूर्छा समाप्त नहीं होती, तब तक मुक्ति की पृष्ठभूमि भी तैयार नहीं होती। भगवान महावीर ने इसी लिए अपरिग्रह पर अत्यधिक बल दिया है। अपरिग्रह बहुत व्यापक शब्द है। अर्थ का संग्रह न करना उसका एक पक्ष है। उसका दूसरा पक्ष है-अर्थ के प्रति मूर्छा न रखना। हालांकि पूर्ण अपरिग्रह की अपेक्षा से ये दोनों ही बातें आवश्यक हैं, तथापि मूर्छा न रखने की बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। जब तक मूर्छा नहीं टूटती है, तब तक धन के बिना भी व्यक्ति परिग्रही बन जाता है। इस अर्थ में एक भिखारी भी बहुत बड़ा परिग्रही हो सकता है। लेकिन जहां मूर्छा टूट जाती है, वहां व्यक्ति धन से जुड़ा रहकर भी एक सीमा तक अपरिग्रह की साधना करने में सफल हो सकता है। धन गृहस्थ-जीवन की एक अनिवार्यता है। इसलिए कोई गृहस्थ अर्थ से सर्वथा असंपृक्त नहीं रह सकता, उसका साधु-साध्वियों की तरह सर्वथा परित्याग नहीं कर सकता, पर जहां तक मूर्छा छोड़ने का प्रश्न है, वह इस दिशा में चाहे जितना आगे बढ़ सकता है। इस दिशा में बढ़ा उसका हर चरण उसके सुख और शांति का आधार बनता है, जीवन-सौभाग्य को बढ़ानेवाला सिद्ध होता है। पद्मपुर, २४ अप्रैल १९६६ पूंजीवाद बनाम अपरिग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy