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नहीं लगता। यों थोड़ी-बहुत सफलता तो किसी को मिल सकती है। वैचारिक विषमता मिटे
धनी-गरीब की यह विषमता मिटाने के लिए सबसे बड़ी अपेक्षा है वैचारिक वैषम्य मिटाने की। जब तक वैचारिक स्तर पर यह विषमता बनी है, तब तक आर्थिक विषमता मिटाने का कोई भी प्रयत्न अंततः निष्फल ही रहेगा। वैचारिक विषमता मिटाने से मेरा तात्पर्य है कि व्यक्ति समत्व के सिद्धांत को जीवन का आदर्श मानकर चले। वह न तो धन-संपत्ति में मूर्च्छित बने और न गरीबी में आंसू ही बहाए, न तो धन को जीवन चलाने के साधन से अधिक महत्त्व दे और न धनाभाव के कारण किसी को हीन-दीन ही समझे। हमारे पास अमीर-गरीब सभी तरह के लोग आते हैं। उनके प्रति हमारे मन में कोई अंतर नहीं है। हम दोनों को समान दृष्टि से देखने का प्रयास करते हैं; दोनों को उनके हित की बात समान रूप से बताते हैं। समत्व का आदर्श रूप
भगवान महावीर समत्व के आदर्शपुरुष थे। एक ओर स्वर्ग का अधिपति इंद्र उनके चरणों में श्रद्धाप्रणत होता है तो दूसरी ओर क्रूर चंडकौशिक सर्प उनके पैरों पर डंक मारता है। पर इन दोनों ही स्थितियों में भगवान महावीर अपने समत्व में स्थिर रहते हैं। दोनों के प्रति उनका मन करुणा से भर जाता है। इंद्र के प्रति उनके मन में विचार उभरता है कि यह कितना विलासी है! इसका कल्याण कैसे होगा !! चंडकौशिक के प्रति उनके मन की संवेदना पैदा होती है कि यह महाक्रूर है! इसकी दृष्टि में ही जहर है!! इसका कल्याण कैसे होगा !!!
साम्यवाद का जिक्र मैंने पूर्व में किया था। वह विषमता मिटाता है, पर महावीर का जो समतावाद है, उसके समक्ष वह कहीं नहीं ठहरता। हालांकि महावीर जितनी समता हर-कोई नहीं अपना सकता, कोई-कोई ही उस आदर्श तक पहुंच सकता है, तथापि एक सीमा तक तो उस समता की साधना हर-कोई स्वीकार कर ही सकता है और करना ही चाहिए। अर्थ साध्य न बने
अर्थ के संदर्भ में मैं आप लोगों से कहना चाहता हूं कि आप उसके प्रति अपना दृष्टिकोण सम्यक बनाएं। उसे जीवन का साध्य न माने, साधन की भूमिका तक ही सीमित रखें। ऐसा हुए बिना उसके प्रति व्यामोह टूट नहीं
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- आगे की सुधि लेइ
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