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सकते हैं। यद्यपि जनतंत्र की शासन-व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति पद के लिए उम्मीदवार बन सकता है, उस पर रुकावट नहीं हो सकती, तथापि ऐसी मानसिकता कदापि अच्छी नहीं मानी जा सकती। भोग और सुखसुविधाएं बटोरने के लिए त्याग की बात अनुचित है। मेरी दृष्टि में यह वास्तविक त्याग और संयम है ही नहीं। इससे अपेक्षित लाभ की आशा करना तो भयंकर भूल है। अमीर और गरीब
त्याग और संयम की बात जहां आती है, वहां पूंजी और संग्रह की बात आपने-आप चर्चित बन जाती है। आज लोगों में पूंजीपतियों के प्रति आक्रोश की भावना उत्पन्न हो रही है। यह स्वर बार-बार सुनाई देता है कि पूंजीपति और गरीब की विषमता जब तक नहीं मिटेगी, तब तक हम शांति से नही बैठ सकते। अभी पिछले ही दिनों जब मैं श्रीकर्णपुर में था, तब आगामी चुनाव का एक उम्मीदवार मेरे पास आया। वार्तालाप के प्रसंग में उसने कहा-'आचार्यजी! धनी और गरीब के बीच का वैषम्य हर हालत में मिटाना होगा। चंद पूंजीपति पूंजी का संग्रह कर लेते हैं और
अधिक करके नागरिकों को खाने के लिए रोटी भी सुलभ नहीं होती। यह विषमता बहुत बड़े खतरे की सूचना है। जब तक यह विषमता नहीं मिटती है, हम निश्चिंतता का जीवन नहीं जी सकते।' मैंने कहा-'आज आम आदमी पूंजीपतियों से विग्रह करता है, घृणा करता है, क्योंकि उनके पास पूंजी है। पर आपसे मैं पूछना चाहता हूं कि यदि पूंजी आपके पास होती तो।' बिना उनके उत्तर की प्रतीक्षा किए मैंने आगे कहा-'शायद आप विग्रह और घृणा नहीं करते। कारण स्पष्ट है। आपका पूंजी से कोई विरोध नहीं है। उसके प्रति आपके मन में कोई घृणा नहीं है। विरोध और घृणा है व्यक्ति से।'
समझने की बात यह है कि पूंजी के प्रति गरीबों के मन में भी उतना ही आकर्षण है, जितना धनपतियों के मन में। जो लोग आज पूंजीपतियों को कोसते हैं, भला-बुरा कहते हैं, उनकी स्वयं की आकांक्षा पूंजीपति बनने की है। यही कारण है कि लंबे प्रयत्न के बावजूद पूंजीवाद खत्म नहीं हो रहा है। साम्यवादी खूनी क्रांति के माध्यम से पूंजीवाद समाप्त करने की बात कहते हैं, विषमता मिटाने की बात करते हैं, पर वे भी सफल कहां हैं ? जहां तक मैं समझता हूं, भविष्य में भी वे इसमें सफल हो जाएंगे, संभव
पूंजीवाद और अपरिग्रह
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