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________________ भोग के लिए त्याग साधु-संतों के प्रति आकर्षण और श्रद्धाभाव को जीवन की प्रवृत्तियों में उतारने का अर्थ आप समझते ही होंगे । व्यक्ति-व्यक्ति जीवन में त्याग और संयम को स्थान दे। त्याग और संयम को जितना अधिक स्थान मिलता है, यह आकर्षण और श्रद्धाभाव उतना ही अधिक सार्थक बनता है, पर ऐसा कहने का मेरा तात्पर्य यह नहीं कि लोगों के मन में त्याग / संयम के प्रति कोई आकर्षण नहीं है, वे त्याग / संयम को जीवन में स्थान नहीं देते। त्याग और संयम को भी लोग जीवन में स्थान देते हैं, तथापि इतना सुनिश्चित है कि त्याग / संयम के भाव से त्याग / संयम करनेवाले बहुत कम हैं। अधिक व्यक्ति तो ऐसे ही मिलते हैं, जो त्याग और संयम का आचरण भी करते हैं तो उसके पीछे उनकी भोग और सुख-सुविधा प्राप्त करने की आकांक्षा रहती है। यह त्याग सच्चा त्याग नहीं है। यह संयम वास्तविक संयम नहीं है। इससे त्याग और संयम का वास्तविक फल व्यक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। कुर्सी तो मिलनी ही चाहिए ! दिल्ली में कांग्रेस पार्टी का चुनाव हो रहा था । एक व्यक्ति किसी महत्त्वपूर्ण पद के लिए उम्मीदवार के रूप में खड़ा हुआ। वह बिलकुल अनपढ़ था। पद की गरिमा और उसका दायित्व देखते हुए उसका उस पद के लिए उम्मीदवार होना सर्वथा अनुपयुक्त था। अतः कुछ समझदार लोगों ने उससे कहा- 'आप यह चुनाव लड़कर क्या करेंगे ?' उसने प्रतिप्रश्न की भाषा में उत्तर दिया- 'दूसरे- दूसरे लोग क्या करेंगे ?' लोगों ने कहा- 'दूसरेदूसरे उम्मीदवार तो पढ़े-लिखे हैं, चिंतनशील हैं। अपने विचारों से लोगों को लाभान्वित करते हैं, संगठन में काम करते हैं। वह बोला- 'इससे क्या फर्क पड़ता है? मैं भी अब पढ़ लूंगा । भाषण देना भी धीरे-धीरे सीख लूंगा। कुर्सी तो जरूर लूंगा।' लोगों को उसके इस उत्तर से बड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पूछा- 'आखिर कुर्सी प्राप्त करने का अपका इतना आग्रह क्यों है ?' छूटते ही वह बोला- 'आजादी के लिए मैंने जेल नहीं काटी क्या ? उसके मुआवजे के रूप में कुर्सी तो मिलनी ही चाहिए । ' इस घटना से आप समझ सकते हैं कि त्याग के पीछे लोगों की मानसिकता कैसी है। जेल तो हजारों व्यक्ति गए थे। यदि वे सभी मुआवजा मांगने लगें तो बेचारी कुर्सी का क्या हाल होगा, आप स्वयं कल्पना कर आगे की सुधि लेइ २३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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