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स्थिति ने कपिल को अत्यंत संवेदित किया। उसका मन व्यथित हो उठा, पर वह निरुपाय था। चाहकर भी उसे सहयोग करने की स्थिति में नहीं था। अपने इस असहायत्व, निरुपायत्व एवं अपुरुषत्व पर उसे हलका रोष आया। अंदर-ही-अंदर उसकी आत्मा ने धिक्कारा भी। उसकी आंखें छलछला आईं। उसकी यह स्थिति देख दासकन्या बोली-'पुरुषपात्र होकर रोते हो! तुम्हें यह शोभा नहीं देता। इतने अधीर मत बनो। रोने से समस्या नहीं सुलझेगी। कुछ पुरुषार्थ करो।' कपिल बोला-'तुम ठीक कहती हो, पर मेरी यहां किसी से जान-पहचान नहीं। व्यापार-व्यवसाय करना मैं बिलकुल भी जानता नहीं। अन्य कोई कला मेरे पास है नहीं। पढ़ा-लिखा भी अब तक मैं विशेष हूं नहीं। ऐसी स्थिति में तुम ही बताओ कि मैं क्या पुरुषार्थ करूं।'
दासकन्या ने कहा-'देखो, मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं, समाधान सुझाती हूं। इस नगरी में धन नाम का एक सेठ है। उसका वर्षों से यह क्रम है कि प्रातःकाल सबसे पहले पहुंचकर बधाई देनेवाले ब्राह्मण को वह दो माशा सोना देता है। तुम यह उपाय काम में लेकर दो माशा सोना ले आओ। मेरी समस्या समाहित हो जाएगी। मैं उससे अच्छी तरह से दासीमहोत्सव मना लूंगी।'
कपिल को दासकन्या की यह बात जच गई। बस, अगले ही दिन जाकर सेठ को बधाई देने का निर्णय उसने कर लिया। प्रातः जल्दी उठने की चिंता में उसे रात में पूरी नींद भी नहीं आई। वह अर्ध-रात्रि में ही जग गया। सही समय का उसे बोध नहीं हुआ। इस आशंका से कि मेरे से पूर्व आज कोई दूसरा ब्राह्मण कहीं सेठ को बधाई देने न पहुंच जाए, वह तत्काल वहां से प्रस्थित हो गया, पर वह थोड़ी ही दूर गया होगा कि राजपुरुषों की नजर उस पर पड़ी। उन्होंने चोर समझकर उसे पकड़ लिया और डंडों से उसकी खूब पिटाई की। कपिल के मन में विचार आया-सोना तो पता नहीं मिलेगा या नहीं, डंडे तो पहले ही मिल गए!
प्रातः चोर के रूप में कपिल को राजा के सम्मुख हाजिर किया गया। कपिल ने रुआंसे स्वर में कहा-'महाराज! मैं चोर नहीं हूं। राजपुरुषों ने मुझे मात्र संदेहवश पकड़ा है।' राजा ने पूछा-'फिर तुम अर्धरात्रि में क्यों घूम रहे थे?' राजा के इस प्रश्न पर कपिल ने अपनी सारी बात सरलता से बता दी। राजा को उसकी बात पर विश्वास हो
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आगे की सुधि लेइ
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