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के साथ बाजार से गुजरते थे, पर तुम्हारे अनपढ़ होने के कारण उनका यह पद इस ब्राह्मण को मिल गया। हमारा सारा सम्मान और ठाट-बाट इस ब्राह्मण के पास चला गया।' कपिल को अपनी अज्ञता पर बहुत दुःख हुआ। उसने कहा-'मां! अब मैं विद्या पढूंगा।' यशा ने कहा-'यह तो बहुत अच्छी बात है, पर तुम्हें पढ़ाएगा कौन? यहां के सभी ब्राह्मण ईर्ष्यालु हैं।' फिर वह दो क्षण जरा चिंतन करके बोली-'हां, एक काम हो सकता है। तुम यहां से श्रावस्ती नगरी चले जाओ। वहां तुम्हारे पिताश्री के परम मित्र इंद्रदत्त रहते हैं। वे तुम्हें सहर्ष विद्याध्ययन कराएंगे।'
कपिल श्रावस्ती पहुंच गया। वहां उसने इंद्रदत्त से संपर्क किया। कपिल का मित्र-पुत्र के रूप में परिचय पाकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने अध्ययन करवाना तत्काल स्वीकार कर लिया। उसके भोजन
और आवास की व्यवस्था उसने नगरी के शालिभद्र नामक एक धनाढ्य सेठ के घर पर कर दी। कपिल का अध्ययन व्यवस्थित रूप से शुरू हो गया, पर कुछ ही दिनों पश्चात एक दुर्घटना घटित हो गई। सेठ के घर पर दासी की एक कन्या थी। कपिल को भोजन करवाने तथा उसके कक्ष की सफाई आदि करने का काम वही करती थी। वह युवा थी। कपिल उसके रूप-लावण्य में उलझ गया। प्रतिदिन के संसर्ग से संबंधों की प्रगाढ़ता हो गई। उन दोनों के पारस्परिक व्यवहार की वर्जनाएं टूटने लगीं। इस क्रम में एक दिन वह भी आया, जब दासकन्या ने अपना सर्वस्व उसे समर्पित कर दिया। वह बोली-'मैं तुम्हारे चरणों में ही रहना चाहती हूं। तुम ही मेरे सर्वस्व हो। इस सेठ के यहां तो मात्र अपने जीवन-निर्वाह के लिए रह रही हूं। यदि तुम्हारे पास मेरे भरण-पोषण जितनी व्यवस्था होती तो यहां रहती ही नहीं।'
__कुछ दिन और बीते। एक दिन कपिल ने देखा कि आज दासकन्या बहुत उदास है। उसने उससे उदासी का कारण पूछा। वह बोली-'दासीमहोत्सव का दिन सन्निकट है। मैं वह महोत्सव मनाना चाहती हूं।' कपिल बोला-'खुशी से मनाओ। उदास होने की क्या बात है?' दास-कन्या बोली-'तुम मेरी पीड़ा नहीं समझते। मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं है। इस निर्धनता के कारण मुझे कितना अपमानित एवं तिरस्कृत होना पड़ रहा है! मेरी सखियां मेरी हंसी कर रही हैं, मुझ पर ताने कस रही हैं। बोलो कि ऐसी स्थिति में महोत्सव मनाऊं तो कैसे मनाऊं।' दासकन्या की इस
शांति का सही मार्ग
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