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________________ २: शांति का सही मार्ग हर प्राणी को सुख की चाह है। दुःख किसी को काम्य नहीं है। इसलिए व्यक्ति सुख की टोह में अपना समूचा जीवन बिता देता है। सुख का साधन है-संतोष। संतोषी परम सुखी-यह जनश्रुति यथार्थपूर्ण है, क्योंकि संतोष से बढ़कर दूसरा कोई सुख नहीं है। कोई गरीब हो या धनवान, तृष्णा के रहते उसके लिए शांति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता, क्योंकि तृष्णा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। इस संदर्भ में कवि सुंदरदासजी ने लिखा है जो दस बीस पचास भए, सय होय हजार तो लाख मंगेगी। कोड़ अरब्ब खरब्ब असंख, धरापति होने की चाह जगेगी। स्वर्ग पाताल को राज करूं, तृष्णा दिन की दिन और बढ़ेगी। __ 'सुंदर' एक संतोष बिना नर! तेरी तो भूख कभू न भगेगी॥ यह एक शाश्वत तथ्य है कि ज्यों-ज्यों इच्छा की पूर्ति होती है, त्योंत्यों आकांक्षा का विस्तार होता जाता है। जो व्यक्ति दस रुपयों की इच्छा करता है, वह स्वर्ग और पाताल का राज्य पाकर भी संतुष्ट नहीं होता। शास्त्रों में कपिल मुनि का उदाहरण आता है, जो इस तथ्य की पूर्ण पुष्टि करता है। प्रसंग कपिल मुनि का कपिल कौशांबी के राजपुरोहित कश्यप का पुत्र था। यशा उसकी माता थी। अचानक कश्यप की मृत्यु हो गई। अतः राजा ने कश्यप के स्थान पर राजपुरोहित के रूप में किसी दूसरे ब्राह्मण की नियुक्ति कर दी। वह ब्राह्मण जब बाजार से होकर गुजरता, तब छत्र धारण करता। उसे देखकर यशा की आंखों में आंसू आ जाते। एक दिन कपिल ने उसे रोते हुए देखा तो उसका कारण पूछा। यशा ने कहा-'वत्स! एक दिन तुम्हारे पिताश्री भी इस राजपुरोहित की तरह छत्र धारण करके राजसी ठाट-बाट . - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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