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विक्षिप्तता, आत्महत्या आदि उसी की परिणतियां हैं। इसलिए आप यह बात समझें कि संग्रह करनेवाला पैसों का नहीं, दुःखों का संग्रह करता है। मैं जिस मकान में रहता हूं, वह रात को खुला रहता है, पर मुझे चोर का भय नहीं है। भय उन्हें होता है, जिनके पास संग्रह होता है। मेरे पास संग्रह नहीं है। मैं तो असंग्रह को जीता हूं, त्याग को जीता हूं;
और जब भय नहीं है, तब अशांति नहीं है, दुःख की संवेदना नहीं है। सचमुख असंग्रह या त्याग ऐसा तत्त्व है, जिसे प्राप्त करके एक चोर भी साहूकार बन जाता है। प्रसंग प्रभव का
प्रभव स्वामी का प्रसंग इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट कर देता है। जंबू स्वामी भगवान महावीर के दूसरे पट्टधर के रूप में विश्रुत हैं। वे राजगृह के धनाढ्य श्रेष्ठी ऋषभदत्त के घर में पैदा हुए। बड़े लाड़-प्यार से बालक जंबू का लालन-पालन हुआ। अच्छी-से-अच्छी शिक्षा की व्यवस्था हुई। एक बार नगर में आचार्य सुधर्मा का पदार्पण हुआ। हजारों-हजारों लोग उन्हें सुनने के लिए उनकी सन्निधि में पहुंचने लगे। विभिन्न जिज्ञासाओं और कुतूहल से भरा कुमार जंबू भी आचार्य सुधर्मा की प्रवचन-सभा में पहुंचा। प्रवचन सुनकर वह इतना प्रभावित हुआ कि संसार से विरक्त हो गया। उसने तत्काल मानसिक संकल्प कर लिया कि मैं भी त्याग का मार्ग अपनाऊंगा।
घर पहुंचकर जंबू ने माता-पिता के समक्ष संयम ग्रहण करने की भावना व्यक्त की। सुनकर वे सहसा सन्न रह गए। दो-चार क्षण उसी स्थिति में रहने के पश्चात बोले-'पुत्र! तुम्हारे बारे में हमने कितनेकितने सपने संजोए थे। क्या वे सब यों ही समाप्त हो जाएंगे?' जंबू बोला-'सपने तो समाप्त ही होते हैं। उनके बारे में आप न सोचें।
आप तो सहर्ष मुझे दीक्षा की अनुमति प्रदान करें। दीक्षा का मार्ग दुःख-मुक्ति का मार्ग है। मुझे दुःख प्रिय नहीं है, इसलिए मैंने यह चिंतन किया है। यदि आपको भी दुःख अप्रिय है और आप भी उससे छूटना चाहते हैं तो आप भी इस पथ पर कदम बढ़ाएं। हम साथ-साथ दीक्षा ग्रहण करेंगे।'
हालांकि जंबू के माता-पिता को पुत्र की बात तथ्यपरक नजर आई, तथापि अपनी मोहाकुलता के कारण वे उसे सहसा दीक्षा की स्वीकृति • २२२ -
आगे की सुधि लेइ
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