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मिटनेवाला नहीं है। इसके मिटने की बात करना ही बेमानी है, एक तरह की अपनी ही नासमझी का प्रकटीकरण है। धर्म तो अजन्मा तत्त्व है, शाश्वत तत्त्व है। आत्मा के साथ इसका तादात्मय है। जब आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व है, तब धर्म का त्रैकालिक अस्तित्व स्वयंसिद्ध है; और जिस तत्त्व का त्रैकालिक अस्तित्व है, उसका महत्त्व इस विज्ञान के युग में क्या, किसी भी युग में कम नहीं हो सकता। यह धरती कभी धर्म से शून्य नहीं हो सकती। धर्म की परिभाषा
कोई पूछ सकता है कि धर्म क्या है। यों तो धर्म की बहुत लंबीचौड़ी परिभाषा दी जा सकती है, पर मैं उसमें आपको उलझाना नहीं चाहता। बहुत सीधी-सी और बहुत छोटी-सी परिभाषा बताना चाहता हूं। धर्म है-स्वभाव में रमण करना। इस परिभाषा के आधार पर आप अपनी धार्मिकता का हिसाब लगा सकते हैं। जिस सीमा तक आप स्वभाव में रमण करते हैं, उस सीमा तक धार्मिक हैं और जितना-जितना विभाव है, उतनी-उतनी धार्मिकता आनी अभी अवशिष्ट है। .."वह अधर्म है
यदि गहराई से देखा जाए तो धर्म जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। उससे वह पृथक हो नहीं सकता। जो धर्म जीवन से पृथक होता है, वह वस्तुतः धर्म है ही नहीं। धर्म के नाम पर वह कोई अन्य ही तत्त्व है। आज बहुत-से लोग धर्म से नफरत करने की बात करते हैं। मैं मानता हूं, वास्तविक धर्म से कोई कभी नफरत कर नहीं सकता। नफरत होती है, धर्म के नाम पर चलनेवाले गलत तत्त्व से। मैं बहुत स्पष्ट कहना चाहता हूं कि आडंबर से धर्म का कोई संबंध नहीं है। शोषण और अन्याय से धर्म का कोई वास्ता नहीं है। जहां धर्म के नाम पर ये तत्त्व चलते हैं, वहां लोगों की धर्म पर आस्था कैसे हो सकती है? वहां तो घृणा होना बहुत स्वभाविक है। ऐसे धर्म को तो मैं भी धर्म के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हूं| सीधी भाषा में कहूं तो वह अधर्म है। जाग्रत धर्म की पहचान
मैं देखता हूं, आज धर्म रूढ़ियों से जकड़ा हुआ पड़ा है, अंध परंपराओं पर चल रहा है। ऐसे धर्म का भविष्य अंधकारमय है। बेशक आज के वैज्ञानिक युग में लोग उसे नकार देंगे। आज तो वही धर्म जन
दीक्षा : सुख और शांति की दिशा में प्रयाण
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