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३२ : दीक्षा : सुख और शांति की दिशा में प्रयाण*
साधु-संत द्विज होते हैं
___आज का कार्यक्रम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम को देखने की लोगों के मनों में उत्सुकता है, कुतूहल का भाव है; और यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि आज एक बहिन का दुबारा जन्म हो रहा है। ब्राह्मण द्विज कहलाता है। उसका एक जन्म माता की कुक्षि से होता है
और दूसरा जन्म उपनयन-संस्कार से। द्वाभ्यां जन्म उपनयनसंस्काराभ्यां जायते इति द्विजः। पक्षी भी द्विज कहलाता है। एक बार वह अंडे के रूप में पैदा होता है और दूसरी बार पक्षी के रूप में। इसी लिए कहा गया है-द्वाभ्यां जन्म-अण्डाभ्यां जायते इति द्विजः। साधु-संत भी द्विज हैं। उनका एक जन्म तो सामान्य रूप से होता ही है, पर दूसरा जन्म दीक्षा स्वीकार करने के समय फिर होता है। दीक्षा स्वीकार करने का अर्थ है-सांसारिक जीवन की मृत्यु और साधना के जीवन के शुरुआत। दूसरे शब्दों में असंयममय जीवन की मृत्यु और संयममय जीवन का शुभारंभ। आज एक बहिन आपके समक्ष उपस्थित है। यह भी अपना असंयममय सांसारिक जीवन छोड़कर संयममय जीवन जीने के लिए तैयार हुई है, साधना के पथ पर बढ़ने के लिए कटिबद्ध हुई है। इसलिए दीक्षासंस्कार की संपन्नता के साथ ही यह द्विज बन जाएगी। धर्म अजन्मा तत्त्व है
लोग कहते हैं कि आज विज्ञान का युग है। धर्म के प्रति लोगों का आकर्षण घट रहा है। संसार अध्यात्मशून्य हो रहा है। "मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि ऐसी स्थिति में अध्यात्म का यह कार्यक्रम देखने के लिए इतनी उत्सुकता क्यों; इतना कुतूहल क्यों; यह उलटी गंगा क्यों बह रही है। समाधान मैं ही दे देता हूं। वह बहुत स्पष्ट है। धर्म का तत्त्व कभी *दीक्षा-समारोह में प्रदत्त प्रवचन
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