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अहिंसा की पात्रता
आज जब अहिंसा की चर्चा होती है तो कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि यह चर्चा अप्रासंगिक है। कारण बताया जाता है-सीमा पर होनेवाला युद्ध। लोग इस भाषा में सोचते हैं कि युद्ध के समय अहिंसा की बात करना अपनी कायरता प्रकट करना है। इस समय तो शस्त्रों की अपेक्षा है। अहिंसा के सिद्धांत ने हमें अतीत में गुलामी की जंजीर में जकड़ा था और अब भी हम यदि इसी की रटन लगाते रहे तो हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।
मैं समझता हूं, यह एक बहुत बड़ी भ्रांति है। अहिंसा कायरता नहीं है, कदापि नहीं है। अहिंसा में तो अनंत शक्ति है। इसे कवच के रूप में धारण करनेवाला सुरक्षित हो जाता है। भारतवर्ष अहिंसा के कारण कभी गुलाम नहीं बना। वह गुलाम बना हिंसा के कारण, अपनी पारस्परिक फूट के कारण। वस्तुतः लोग अहिंसा की ताकत और उसकी प्रतिरोधात्मक क्षमता से परिचित नहीं हैं। इसी लिए वे हिंसा का आश्रय लेने की बात करते हैं। यदि वे अहिंसा को यथार्थ की भूमिका में समझते तो कभी ऐसी बात नहीं करते। फिर अहिंसा को वही अपना सकता है, जो स्वयं शक्तिसंपन्न हो। कायर-कमजोर व्यक्ति अहिंसा को धारण नहीं कर सकता। वस्तु जितनी उच्चस्तर की होती हो, उसके टिकने के लिए उतने ही उच्चस्तर के पात्र की अपेक्षा रहती है। कहा जाता है कि सिंहनी का दूध पीतल, कांसी आदि के सामान्य बर्तन में नहीं टिक सकता। उसके लिए तो सोने का बर्तन चाहिए। मैं नहीं कह सकता कि यह कथन कहां तक यथार्थ है, पर इतना बिलकुल सही है कि पात्रता का अपना बहुत मूल्य है। अहिंसा की पात्रता वीरता है, शक्ति-संपन्नता है। मनुष्य देवता बन सकता है
अशांति और दुःख का दूसरा कारण है-जन-जीवन में बढ़ती हुई अनैतिकता, असदाचार। मैं मानता हूं, यों तो अनैतिकता, असत्य, असदाचार-जैसे तत्त्व किसी-न-किसी रूप में अतीत में भी रहे हैं, पर वर्तमान युग पर उनका असर बहुत गहरा है। समाज के सभी वर्ग कुछ कमोबेश इनकी गिरफ्त में हैं। मनुष्यता का क्रमशः ह्रास हो रहा है। आदमी राक्षस बनता जा रहा है। यह बहुत ही चिंताजनक स्थिति है। इस स्थिति से निपटने के लिए हम अणुव्रत का कार्यक्रम चला रहे हैं। अणुव्रत इस
सुख और शांति का मार्ग
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