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३१ : सुख और शांति का मार्ग
संसार की स्थिति पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो यह बहुत स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि जन-जीवन अशांत है, व्यथित है। हर व्यक्ति क्लांति का वेदन कर रहा है। सुखी आदमी खोजने से भी प्राप्त होना मुश्किल है। प्रश्न होता है कि इस अशांति और दुःख का कारण क्या है। इसके उत्तर में कोई समाज को दोषी बताता है तो कोई विज्ञान को। कोई सरकार को कारण मानता है तो कोई राजनीतिक दलों को। पर मेरी दृष्टि में इनमें से कोई भी उत्तर सही नहीं है। अशांति और दुःख का मूलभूत कारण व्यक्ति स्वयं है, उसकी स्वयं की वृत्तियां हैं। अहिंसा और शांति
यह कैसी विचित्र बात है कि व्यक्ति स्वयं तो सुखी होना चाहता हैं, दुःख की छाया भी देखना नहीं चाहता, उसका नाम भी सुनना नहीं चाहता और दूसरों का सुख लूटता है! उन्हें दुखी बनाता है!! दूसरों को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाना, चाहे वह अधिकार हनन के रूप में हो, वाचिक प्रहार के रूप में हो, मानसिक संक्लेश के रूप में हो, शारीरिक उत्पीड़न के रूप में हो या प्राणवध के रूप में हो, हिंसा की कोटि में आता है। मैं मानता हूं, यह हिंसा की मनोवृत्ति ही व्यक्ति के दुःख और अशांति का मूलभूत कारण है। इसलिए सुख और शांति का रास्ता यही है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सीमा तक स्वयं को अनुशासित करे कि मैं दूसरों का सुख नहीं छीनूंगा, दूसरों की अशांति का कारण नहीं बनूंगा। यही बात हर समाज और राष्ट्र के लिए भी है। एक समाज दूसरे समाज की अशांति का कारण न बने। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की शांति में बाधक न बने। यदि अहिंसा के फूल इस भूमिका पर खिलते हैं तो सुख और शांति के रूप में उनका सौरभ सारे भूमंडल को सुवासित करेगा।
- आगे की सुधि लेइ
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