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________________ उड़ेलते हुए पूछा-'इतने दिनों तक पाठ याद क्यों नहीं हुआ?' युधिष्ठिर ने कहा-'गुरुदेव! आपने हमें सिखाया था कि जो पढ़ो, उसे जीवन में उतारो, अन्यथा पढ़ने का कोई सार नहीं। क्रोधं मा कुरु-यह वाक्य तो मैंने उसी दिन याद कर लिया था, पर तब तक स्थिति यह थी कि मुझे गुस्सा बहुत आता था। ऐसी हालत में पाठ याद हो जाने की बात कहना अनुचित हो जाता। इसी लिए मैंने पाठ याद न होने की बात कही और सलक्ष्य गुस्सा छोड़ने का अभ्यास शुरू कर दिया। इतने दिनों के अभ्यास से मैं इस स्थिति में तो पहुंच गया था कि मुझे कोई चाहे कुछ भी कहे, गाली भी क्यों न दे, गुस्सा नहीं आता; पर कोई पीट दे, तब भी गुस्सा न आए, इस स्थिति तक पहुंचने का अभ्यास चालू था। चूंकि आज तक ऐसा कोई प्रसंग सामने नहीं आया, इसलिए इसकी कसौटी होनी अब तक शेष थी। आज आपकी कृपा हुई और मुझे इस कसौटी पर स्वयं को कसने का अवसर मिला। चांटे लगने पर जब मुझे गुस्सा नहीं आया, तब मैंने समझ लिया कि पाठ पूरा आत्मगत हो गया है। अतः मैंने आपसे कहा कि पाठ याद हो गया है और मैंने पाठ सुना भी दिया।' रहस्य जानकर द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन कहा कि गुरु मैं कहलाता हूं, पर वास्तव में गुरु तो यह है। पढ़ाई की जिस सूक्ष्मता तक यह पहुंचा है, उस सूक्ष्मता तक मैं भी नहीं पहुंच पाया हूं। क्रोधं मा कुरु का पाठ पढ़कर इसने गुस्सा करना छोड़ दिया और मैं यह पाठ पढ़ाता हुआ भी अब तक गुस्सा करता हूं। जब मैंने स्वयं यह पाठ आत्मसात नहीं किया, तब दूसरों को पढ़ाने का अधिकार नहीं है। इसे पढ़ाने का वास्तविक अधिकारी तो यह युधिष्ठिर ही है। मुझे इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। सही रूप में पाठ पढ़कर ही शिष्यों को पढ़ाना चाहिए। प्रकट में शिष्यों को संबोधित करते हुए बोले-'देखो, पढ़ाई नाम इसका है। तुम सबको भी इसी तरह पाठ आत्मसात/जीवनगत करके पढ़ाई करनी चाहिए।' हमारे छात्र भी इस उदाहरण से प्रेरणा लें। अध्ययन जीवनगत बने, ऐसा प्रयत्न करें। मैं मानता हूं, ऐसा अध्ययन सचमुच उनके उज्ज्वल भविष्य यह एक सुदृढ़ आधार है। ___ अणुव्रत-विहार का नाम अभी मैंने आपके सामने लिया था। यह संस्थान अणुव्रत का कार्यक्रम आगे बढ़ाता है। अणुव्रत अपने उद्भव-काल से ही समाज के अन्यान्य वर्गों के साथ-साथ विद्यार्थी-वर्ग में भी कार्य विद्याध्ययन : क्यों और कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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