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________________ वही तपस्या उपादेय है....... दूसरी बात यह भी है कि जैन-मुनियों ने तप पर बहुत बल दिया और शरीर सुखाने की बात कही, जबकि तपस्या वहां तक ही करनी चाहिए, जहां तक अहिंसा की भावना को बल मिले। जिस तप से मन संक्लिष्ट हो जाता है, वह तप उपादेय नहीं है। तप आत्म-शुद्धि का मार्ग है। यदि आत्म-शुद्धि नहीं होती है तो शरीर के साथ हमारा क्या विरोध है? अतः यह नितांत अपेक्षित है कि भगवान महावीर ने जिस रूप में तपस्या की, उसे उसी रूप में सम्यक ढंग से समझा जाए। हीनता-महानता का आधार भगवान महावीर ने जातिवाद और वर्णवाद को महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने कहा, व्यक्ति किसी जाति या वर्ण में जन्म लेने मात्र से हीन या उच्च नहीं होता। व्यक्ति की हीनता या महत्ता का मानदंड उसका आचरण है। इसी प्रकार स्त्री को उन्होंने हीन दृष्टि से नहीं देखा। उस युग में नारी-जाति को आगे लाकर तो भगवान महावीर ने एक अनोखा ही काम किया। इसी लिए तो वे नारी-जाति के उद्धारक कहलाते हैं। अनेकांतवाद और स्याद्वाद जिस प्रकार आचार के क्षेत्र में उन्होंने अहिंसा पर बल दिया, उसी प्रकार विचारों का आधार अनेकांत को बनाया, भाषा की पृष्ठभूमि स्याद्वाद को बनाया। अनेकांत और स्याद्वाद के द्वारा वैचारिक और भाषात्मक दोनों स्तरों पर उभरनेवाली विभिन्न उलझनें बहुत आसानी से सुलझाई जा सकती हैं। और बहुत सही तो यह है कि जहां ये दोनों तत्त्व होते हैं, वहां विचार और भाषा के स्तरों पर विवाद पैदा हो ही नहीं सकते। महावीर के संदर्भ में थोड़ी-सी चर्चा मैंने की। मैं मानता हूं, यदि महावीर के सिद्धांतों को सही प्रस्तुति मिले तो जैन-धर्म विश्व का प्रमुख धर्म बन सकता है। महावीर केवल कुछ लाख जैनों के नहीं, अपितु जनजन के आराध्य बन सकते हैं, पर यह तभी संभव है, जब जैन लोग महावीर के सिद्धांत स्वयं सही रूप में समझें और उन्हें अपने आचारविचार में व्यवहारगत बनाएं। कोई अच्छा-से-अच्छा तत्त्व तब तक अपेक्षित लाभ नहीं कर सकता, जब तक वह इस भूमिका पर नहीं कैसे मनाएं महावीर को --१८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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