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है, उतनी दूसरों में नहीं है। अहिंसा और अपरिग्रह के बारे में उन्होंने जितनी बातें कीं, उतनी औरों ने नहीं की।
__ अहिंसा को इस रूप में परिभाषित किया गया कि गृहस्थ अपने आवश्यक कर्तव्य भी पूरे नहीं कर सकता, अपने सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व भी नहीं निभा सकता। पड़ोसी राष्ट्र ने अपने राष्ट्र पर आक्रमण कर दिया, फिर भी हथियार नहीं उठाना चाहिए, उसका मुकाबला नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह हिंसा है। जैनों ने अपरिग्रह का एकांगी विवेचन करते हुए कहा कि परिग्रह त्याज्य है, परिग्रह पाप का मूल है। इस प्रकार हर व्यक्ति के सामने एक महाव्रती आदर्श खड़ा कर दिया। दर्शन बतानेवाले गृहस्थ होते हैं और उस दर्शन का आदर्श मिलता है मुनियों में। मुनि कहांकहां मिलें? फलतः वह विवेचन एक विडंबना बन गया और लोगों ने अव्यावहारिक मानकर जैन-धर्म को उपेक्षित कर दिया।
पर सचाई यह है जैन-धर्म बहुत ही यथार्थवादी धर्म है। भगवान महावीर ने साधना को जैसा व्यावहारिक रूप दिया, वैसा किसी ने नहीं दिया। महाव्रत और अणुव्रत का विभाजन उसी का परिणाम है। महाव्रत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का आदर्श रूप है और अणुव्रत इनका व्यावहारिक रूप। आदर्श तक कोई-कोई ही पहुंच सकता है, इसलिए पांच महाव्रतों का विधान उन्होंने मात्र मुनियों के लिए किया। जनसाधारण आदर्श रूप में इन्हें नहीं निभा सकता। एक सीमा तक ही इनकी साधना उसके लिए संभाव्य है। इसलिए उन्होंने अणुव्रत के रूप में इनकी साधना प्रस्तुत की। यह अहिंसा, अपरिग्रह आदि तत्त्वों का बिलकुल व्यावहारिक रूप है। यानी अणुव्रत स्वीकार करके एक गृहस्थ अपने पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय दायित्व अच्छी तरह से निभाता हुआ अहिंसा, अपरिग्रह आदि की साधना में संलग्न रह सकता है। मैं मानता हूं, जिस दर्शन या धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह आदि का आदर्श रूप नहीं है, वह अधूरा है। इसी प्रकार जिसमें इनका व्यावहारिक रूप नहीं है, वह भी अधूरा है। भगवान महावीर ने व्यक्ति-व्यक्ति के सामर्थ्य की तरतमता को ध्यान में रखते हुए इन्हें दोनों रूपों में प्रस्तुत कर दिया। यदि ये तत्त्व इसी रूप में प्रतिपादित होकर सबके सामने आते तो शायद यह भ्रांति नहीं फैलती, भगवान महावीर का नाम धर्म-प्रवर्तकों की चर्चा में गौण रूप में नहीं उभरता। • १८२
- आगे की सुधि लेइ
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