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आकर्षण नहीं है, लगाव नहीं है।'
हां, तो मैं कह रहा था कि महान व्यक्ति त्याग और अकिंचनता को ही शान समझते हैं, वैभव मानते हैं। भगवान महावीर ने भी त्याग को सच्चा वैभव माना, अकिंचनता को ही जीवन का सारभूत तत्त्व समझा। शेष सब-कुछ उनके लिए निस्सार था। इसलिए वे भर तरुणावस्था में साधना के पथ पर अग्रसर हो गए।
उनका साधना-काल लगभग साढ़े बारह वर्षों का था। इस अवधि का बहुलांश ध्यान और कायोत्सर्ग में बीता, स्वाध्याय में बीता। साढ़े बारह वर्षों के काल में मात्र एक मुहूर्त उन्होंने नींद ली। इस एक बात से आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी साधना कितनी जागरूकता की थी, कितने ऊंचे स्तर की थी। साधनाकाल में उन्होंने यह संकल्प किया कि जब तक केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हो जाता, तब तक लगभग मौन रहूंगा, शरीर की सार-संभाल नहीं करूंगा....."अपनी विशिष्ट साधना और जागरूकता के आधार पर आखिर उन्होंने कैवल्य प्राप्त किया। कैवल्यप्राप्ति का अर्थ है कि उनके ज्ञान के समस्त स्रोत खुल गए। सब-कुछ साक्षात हो गया।
कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात उन्होंने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया, जन-जन को प्रतिबोध दिया। उनका वह प्रतिबोध ढाई हजार वर्षों के पश्चात भी हमारे लिए प्रासंगिक है, अत्यंत उपयोगी है। जैन स्वयं दोषी हैं
. महावीर के विचार अत्यंत व्यापक हैं। उनका समता का दर्शन विश्व-शांति का आधारभूत तत्त्व है। अपरिग्रह का सिद्धांत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की बहुत-सी समस्याओं का समुचित समाधान है। पर मुझे दुःख है कि हमने भगवान महावीर को व्यापक नहीं बनाया। फलतः बुद्ध और क्राइस्ट का जहां नाम आता है, वहां महावीर का नहीं आता, और आता भी है तो गौण रूप में। इसके कारण जैन ही हैं, महावीर के अनुयायी ही हैं। जैनों ने महावीर के सिद्धांत सही रूप में प्रस्तुत ही नहीं किए।
___ इस संदर्भ में पहली भूल यह हुई कि अनुयायियों ने महावीर का दर्शन जितना ऊंचा बताया, अपना जीवन-स्तर उतना ही नीचे गिरा दिया। यों तो यह विसंगति सभी धर्मावलंबियों में मिलती है, पर जितनी जैनों में
कैसे मनाएं महावीर को
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