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________________ है- - त्याग / अकिंचनता । मुझे वह पारस दें " युवक बहुत गरीब था। किसी दिन एक संन्यासी के पास पहुंचा और बोला - 'बाबा ! कुछ दें।' संन्यासी ने कहा- 'मेरे पास कुछ नहीं है। रोटी भी मांगकर खाता हूं।' पर युवक आग्रह करता ही रहा। बाबा ने जब देखा कि यह यों ही लौटनेवाला नहीं है, तब वह बोला- 'देखो, अभी झोंपड़ी के पीछे मैंने एक पत्थर फेंका है, वह ले आओ।' युवक गया और वह पत्थर ले आया। बाबा ने कहा - ' इसे ले जाओ।' युवक बोला - 'बाबा ! पत्थर तो रास्ते में ही बहुत मिलते हैं। मैं आपके पास पत्थर लेने नहीं आया हूं। मुझे तो कोई ऐसी चीज दें, जिससे मेरी दरिद्रता मिट जाए।' बाबा बोला - 'यह कोई सामान्य पत्थर नहीं है, दुर्लभ रत्न है, पारस है। इससे तुम्हारी दरिद्रता मिट जाएगी ।' युवक ने अधीरतापूर्वक पूछा- 'वह कैसे ?' बाबा बोला- 'इस रत्न का यह गुण है कि इसके स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है । लोहे को सोना बनाकर तुम चाहो तो मात्र एक दिन में लक्षाधिपति ही नहीं, कोट्याधिपति भी बन सकते हो ।' युवक ने रत्न उठाकर झट अपने जेब में डाल लिया और इस आशंका से कि कहीं बाबा इसे वापस न मांग ले, तत्काल वहां से प्रस्थित हो गया। पर वह दस-पंद्रह कदम भी मुश्किल से गया होगा कि उसके मन में विकल्प उठा- लगता है, यह रत्न असली नहीं है। बाबा ने पल्ला छुड़ाने के लिए इसे पारस बताकर मुझे दे दिया है। यदि यह असली पारस होता तो बाबा इसे पत्थर समझकर नहीं फेंकता। बस, वह उन्हीं पैरों वापस आया और बाबा से बोला- 'मुझे यह नकली पारस नहीं चाहिए। मुझे तो असली पारस दें।' बाबा ने पूछा- 'अरे भाई ! यह नकली कैसे हुआ ?" युवक बोला- 'यदि यह असली पारस होता तो आप इसे क्यों फेंकते ?' बाबा बोला - 'पारस तो यह असली ही है, पर मेरे पास एक दूसरा पारस है, इसलिए मैंने इसे फेंक दिया।' युवक ने कहा - 'बाबा ! मुझे तो वही पारस दें। उसके मिलते ही मैं भी इसे फेंक दूंगा।' बाबा ने कहा - ' दे तो मैं दूंगा, पर उसे ग्रहण करना कठिन बहुत है ।' युवक ने कहा - 'बाबा ! कितना ही कठिन क्यों न हो, लूंगा तो वही पारस ।' बाबा ने कहा - 'मेरे पास तो त्याग का पारस है, अकिंचनता का पारस है । उस पारस के पास होने के कारण मुझे यह पारस पत्थर लगता है। इसके प्रति मेरे मन में कोई आगे की सुधि ले • १८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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