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________________ आता, पर यह एक सामान्य बात है कि लोग सरल मार्ग पर चलना पसंद करते हैं, कठिन मार्ग पर नहीं। मुझे लगता है, धर्म को जीवन के आचार और विचार की भूमिका पर उतारना लोगों को कठिन लगता है। मात्र भगवान का नाम लेकर तथा उनकी पूजा-आरती करके वे धार्मिक बनना चाहते हैं, क्योंकि इसमें उन्हें सुविधा महसूस होती है, पर धार्मिकता के अभाव में उपासना का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। एक व्यक्ति झूठ बोलता है, चोरी करता है, व्यापार और व्यवसाय में अप्रामाणिकता बरतता है, ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी करता है। और भी न जाने कितनी-कितनी तरह की बुराइयों में वह फंसा हुआ है। ऐसी स्थिति में भगवान का नाम लेने मात्र से कल्याण कैसे संभव है? उपासना : व्यापक संदर्भ वैसे उपासना को यदि व्यापक संदर्भ में लिया जाए, जीवन की पवित्रता के साधन के रूप में उसका उपयोग किया जाए तो वह व्यक्ति के लिए बहुत उपयोगी तत्त्व है। व्यापकता से मेरा तात्पर्य है कि उसे भगवान का नाम लेने तक ही सीमित नहीं रखा जाए। ध्यान, स्वाध्याय, आत्म-चिंतन, सत्संग आदि सभी उपासना के ही अंतर्गत आते हैं। जीवन की पवित्रता का अर्थ आप समझते ही हैं। इसके लिए व्यक्ति को बुराइयों से विरत होना आवश्यक होता है। अतः उपासना व्यक्ति के लिए बुराई न करने की प्रेरणा बननी चाहिए। साथ ही यदि कोई बुराई पूर्व में है तो उसे छोड़ने की प्रेरणा बननी चाहिए। व्युत्पत्ति की दृष्टि से हम देखें तो उपासना का अर्थ होता है नजदीक होना। यानी अपनी आत्मा के पास रहना। यह तभी संभव है, जब व्यक्ति अपने आचार और विचार में आत्मगुण ढाले; क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव सत्य, संयम आदि का विकास करे। धर्म और क्या है? इन गुणों के विकास का नाम ही धर्म है। इसी लिए मैंने कहा कि उपासना को यदि व्यक्ति सही रूप में समझे, व्यापक संदर्भ में स्वीकार करे तो वह उसके लिए बहुत उपयोगी है। वह उसके धार्मिक बनने का सही आधार बनती है। ऐसी उपासना व्यक्ति को करनी चाहिए, अवश्य करनी चाहिए और तब तक करनी चाहिए, जब तक वह मोक्ष के द्वार में प्रविष्ट न हो जाए। मोक्ष के द्वार में प्रविष्ट हो जाने के पश्चात आत्मा परमात्मा बन जाती है। उसकी साधना सार्थक हो जाती है, कृतकारज हो जाती है। • १८४ . - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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