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________________ या उपासना कोई निरर्थक तत्त्व नहीं है, उसका भी जीवन में मूल्य है, तथापि मात्र वे क्रियाकांड हमारे लिए उपयोगी हैं, जो नित्य-धर्म को पुष्ट करें, जीवन की पवित्रता साधे। जो क्रियाकांड इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते, उनकी कोई सार्थकता समझ में नहीं आती। आज स्थिति यह है कि क्रियाकांड तो बहुत बढ़े हैं, पूजा-उपासना खूब चलती है, पर जीवन की पवित्रता की अपेक्षा से उनका कोई असर दिखाई नहीं देता। उनकी ओट में धर्म के मौलिक सिद्धांत व्यवहारगत बनाने की बात सर्वथा गौण-सी हो गई है। इस स्थिति में पर्व-धर्म मात्र प्रदर्शन बनकर रह गया है। इसलिए मैंने कहा है पर्व-धर्म का बढ़ा प्रदर्शन क्रियाकांड अनगिन हैं। नित्य-धर्म हो रहा उपेक्षित छिन्न-भिन्न जीवन है। अत्यावश्यक है यह चिंतन धर्माचार्यों द्वारा।। जाग्रत धर्म हमारा।। जीवित धर्म हमारा।। जाग्रत धर्म आज धर्म के क्षेत्र में अनेक प्रकार की बुराइयां आ गई हैं। लोग धर्म को भी अपनी मानसिकता के अनुकूल ढालने का प्रयास कर रहे हैं। यह अच्छी बात नहीं है। होना यह चाहिए कि व्यक्ति स्वयं का जीवन धर्म के अनुरूप बनाए, धर्म के सिद्धांत जीवन-व्यवहार में उतारे। जब तक धर्म के सिद्धांत जीवन-व्यवहार में नहीं आते, तब तक धर्म से व्यक्ति का अपेक्षित हित नहीं होता। ____ मैं देखता हूं, लोग अपने-अपने धर्म को ऊंचा और श्रेष्ठ साबित करने का प्रयत्न करते हैं, पर मेरी दृष्टि में सबसे श्रेष्ठ और पवित्र धर्म है-सत्य और अहिंसा। मैं तो यहां तक कहता हूं कि इससे भिन्न धर्म का कोई दूसरा रूप हो ही नहीं सकता। इस धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे सिद्धांततः सभी एकमत से स्वीकार करते हैं। इसकी दूसरी बड़ी विशेषता यह है कि इसे करने के लिए व्यक्ति को अतिरिक्त समय लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। बस, अपने हर व्यवहार/प्रवृत्ति के साथ इसे जोड़ने की अपेक्षा है। यह धर्म का व्यावहारिक रूप है। मेरी दृष्टि में व्यावहारिक धर्म ही जाग्रत धर्म है। धर्म : सर्वोच्च तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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