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________________ आज से बारह वर्ष पहले हम डाबड़ी आए थे। इस बीच कई यात्राएं पूरी करके आज फिर यहां आ गए हैं। हम सब राही हैं ___ हम राही हैं। इसलिए घूमते रहते हैं। मैं ही क्यों, आप भी तो राही हैं। लेकिन कैसी बात है कि आप स्वयं को स्थायी मान बैठे हैं! यदि गहराई में पैठे तो मेरा विचार ही सही होगा। आप निश्चित समझें कि कोई स्थायी है ही नहीं। जो आता है, वह अपना गमन पूर्व से ही निश्चित करके आता है। धर्म का स्वरूप और मर्यादा आगमन के अवसर पर मैं जनता से एक बात कहना चाहूंगा कि वह धर्म का वास्तविक स्वरूप समझे। सामान्यतः लोग धर्म को कठोर आचरण कहकर उससे बचना चाहते हैं। इस विषय में मेरा चिंतन सर्वथा भिन्न है। मैं मानता हूं, वास्तव में धर्म ऐसा तत्त्व है, जिससे सरल दूसरा कोई मार्ग हो नहीं सकता। बावजूद इसके, पता नहीं क्यों लोग इसे खांडे की धार मानकर चलते हैं। इसी संदर्भ में मैंने कहा है अथ से इति तक जिसका अवितथ पथ है सीधा-सादा। कथनी-करनी की समानता बस जिसकी मर्यादा। जाने क्यों भय खाते मानव समझ इसे असि-धारा॥ जाग्रत धर्म हमारा॥ जीवित धर्म हमारा॥ यह एक अनुभूत सचाई है कि धर्म का मार्ग प्रारंभ से अंत तक बिलकुल सीधा है। धर्म की बहुत छोटी-सी मर्यादा है जैसा कहना, वैसा करना। जहां कथनी और करनी में अंतर पड़ता है, वहां धर्म सुरक्षित नहीं रह सकता। इसलिए धार्मिक व्यक्ति की यह बहुत स्पष्ट पहचान है कि वह अपनी कथनी और करनी की एकरूपता के प्रति विशेष जागरूक होता है। पर्व-धर्म : नित्य-धर्म धर्म के दो रूप हैं-पर्व-धर्म और नित्य-धर्म। पर्व-धर्म का अर्थ है-क्रियाकांड-उपासना। नित्य-धर्म का अर्थ है-सत्य, अहिंसा अपरिग्रह, शील, संयम, करुणा, मैत्री आदि का व्यवहारगत होना। हालांकि क्रियाकांड .२. -- आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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