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________________ सर्वोच्च तत्त्व बंधुओ! धर्म जीवन का सर्वोच्च तत्त्व है, .सर्वश्रेष्ठ तत्त्व है। इसकी तुलना में संसार की कोई चीज नहीं ठहरती। लोग अर्थ को चाहे कितना ही मूल्य क्यों न दें, पर इसके समक्ष वह कुछ भी नहीं है। इसकी तुलना में उसका पलड़ा हलका रह जाता है, बहुत हलका रह जाता है। प्रसंग पंडित जगन्नाथजी का पंडित जगन्नाथजी दिल्लीनरेश के अत्यंत कृपापात्र थे। एक बार किसी बात पर नरेश के नाराज होने पर वे वहां से नेपाल चले गए। नेपालनरेश ने पंडितजी को शरण दी और आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध करवाई। पंडितजी वहां रहने लगे। एक दिन नेपालनरेश ने उनसे पूछा-'क्यों पंडितजी! किसी बात की कमी तो नहीं है?' पंडितजी ने सुना और तत्काल संस्कृत में बोलेदिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा, मनोरथान् पूरयितुं समर्थः। नेपालभूपात् परिदीयमानं, शाकाय वा स्यात् लवणाय वा स्यात्। - राजन ! मेरी इच्छा पूर्ण करनेवाले या तो भगवान हैं या दिल्ली नरेश। आपके द्वारा मुझे जो प्राप्त है, वह तो शाक या लवण के लिए ही पर्याप्त हो सकेगा। बंधुओ! यही बात मैं आपसे कह रहा था। अर्थ धर्म की तुलना में कोई महत्त्व का तत्त्व नहीं है। जीवन में सुख और शांति प्राप्त करने की अभीप्सा धर्म ही पूरी कर सकता है। धन तो मात्र जीवन चलाने का एक साधन है। इसलिए अपेक्षा इस बात की है कि व्यक्ति धर्म का सही-सही मूल्यांकन करे और उसे जीवन के क्षण-क्षण में जीने का प्रयत्न करे। जीवन की सार्थकता डाबड़ी में हम आज दूसरी बार आए हैं। तब और अब में बहुत अंतर आ गया है, पर यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का एक अनिवार्य नियम है। व्यक्ति के जीवन में भी कितना परिवर्तन आ जाता है! इसे टाला नहीं जा सकता। टालने की जरूरत भी क्या है? जरूरत इतनी ही है कि व्यक्ति हर बदलती परिस्थिति में अपने-आपको संभालकर रखे। धन का आना और जाना-ये दोनों स्थितियां भी इसी परिवर्तन की परिणतियां हैं, पर इन दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति धर्म पर सुदृढ़ रहे, यह - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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