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तेरा मन कैसे टिका
जो व्यक्ति अंतःकरण से मानता है कि बेईमानी पाप है, वह अपने जीवन में किसी को धोखा नहीं दे सकता। कल शाम की ही बात है। चौधरी हरिराम हमारे पास आए। मैंने उनको अणुव्रत की बात बताई। बात उनकी समझ में आ गई। तत्काल धूम्रपान के अतिरिक्त उन्होंने सब नियम स्वीकार कर लिए। वार्तालाप के दौरान उन्होंने अपने जीवन की एक घटना सुनाई-'मुझे एक दिन रास्ते में दो हजार रुपए मिले। मैं वे रुपए लेकर सीधा कलक्टर के पास गया और बिना गिने ही सारे रुपए उनके सामने रखकर बोला-मुझे मार्ग में मिले हैं, जिसके हों, उसे दे दीजिए। कलक्टर ने रुपए गिने। पूरे दो हजार थे। वे बोले-इतने रुपए पाकर तेरा मन टिका कैसे? मैंने कहा-मेरे मन में दूसरे की वस्तु लेने के प्रति ग्लानि है। दूसरे के धन से धनी बनना मैं पाप मानता हूं। थोड़े दिन जीना है, फिर ऐसे घृणित कार्य से स्वयं का पतन क्यों करूं?'
चौधरी का यह प्रसंग सुनकर मुझे लगा, यह सच्ची श्रद्धा का परिणाम है। जहां निर्लोभता के प्रति दृढ़ श्रद्धा होती है, वहां लोभ के प्रति ग्लानि पैदा हो जाती है, पर ऐसी श्रद्धा करनेवाले व्यक्ति कम ही मिलते हैं। कृत्रिम श्रद्धा करनेवाले, बनावटी धार्मिक बननेवाले अधिक मिलते हैं। वे बरसाती मेंढकों की तरह पैदा होते हैं। अष्टग्रह योग के समय न जाने कितने धार्मिक और ईश्वरभक्त पैदा हो गए! घर-घर में कीर्तन और जाप होने लगा। ऐसा लगने लगा, मानो सारा राष्ट्र धार्मिक बन गया है, पर जैसे ही ग्रहों की बात समाप्त हुई, सारी धार्मिकता भी समाप्त हो गई। इसलिए मैंने कहा कि कृत्रिम धार्मिक बहुत हैं, सही माने में धार्मिक बहुत कम हैं। कवि ने कहा है
शैले शैले न मणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने॥ भिक्षु स्वामी ने भी कहा है-दृढ़ समकित धर थोड़ला। अभी लोहा गर्म है
बंधुओ! आपमें से जिन-जिन व्यक्तियों के मन में वस्तुतः ही पाप के प्रति ग्लानि पैदा हो गई है, वे मौका न चूकें। लोहा गर्म हो तो चोट लग जाती है। ठंडा होने के बाद उसका कोई असर नहीं हो सकता। पिछले दिनों मैं हिसार में था। अणुव्रत के प्रचार से वहां बहुत ही सुंदर वातावरण .१५८
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