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उस पर मन का टिक जाना, हाड़ और मज्जा तक गहरे पैठ जाना।
श्रुति और श्रद्धा में अंतर रहता है। श्रुति सही तत्त्व सुनने तक सीमित है। उसे स्वयं में परिणत कर देने का नाम श्रद्धा है।
व्यक्ति परिस्थितिवश या प्रमादवश जब कभी बुराई में प्रवृत्त हो, उसी समय भीतरी घंटी बजकर उसे सचेष्ट कर दे यह श्रद्धा का परिणाम है। वस्तुतः जब सही तत्त्व के प्रति व्यक्ति श्रद्धानिष्ठ हो जाता है, तब गलत तत्त्व-बुराई के प्रति ग्लानि का भाव स्वतः पैदा हो जाता है। ग्लानि का भाव पैदा हो जाने के पश्चात उस प्रवृत्ति या तत्त्व का छूटना बहुत सहज बन जाता है। अतः बुराई को बुराई जानने के बाद उसके प्रति ग्लानि पैदा होना आवश्यक है। कौन नहीं जानता कि झूठ बुरी बात है, हिंसा निंद्य है? पर किसी बुराई के प्रति जब तक ग्लानि नहीं होती, तब तक वह बुराई छूट नहीं सकती। बुराई के प्रति मानसिक ग्लानि पैदा हो जाने के पश्चात यदि किसी परिस्थिति में व्यक्ति के समक्ष वह दुष्प्रवृत्ति करने की मजबूरी पैदा भी होती है तो उसकी आत्मा चीख पड़ती है। आगमों में इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए एक सुंदर उदाहरण प्राप्त हैसंदर्भ सुलस का
कालसौकरिक अपने समय का कुख्यात कसाई था। प्रतिदिन वह पांच सौ भैंसों का वध किया करता था। यह महावध उसका कुलगत धंधा था। कालसौकरिक के पुत्र का नाम सुलस था। कैसा विचित्र संयोग कि महाक्रूरकर्मी बाप का बेटा अत्यंत दयार्द्र था, अहिंसा की भावना से
ओतप्रोत था, हिंसा के प्रति उसके मन में गहरी ग्लानि थी! बूचड़खाना जाना तो बहुत दूर की बात थी, उसके नाम से ही वह कांपता था! पता नहीं कि कौवे के घर मैं यह हंस कैसे आ गया!
___ कालसौकरिक पुत्र की यह अहिंसक वृत्ति देख मन-ही-मन अत्यंत चिंतित था। ज्यों-ज्यों अवस्था प्राप्त होता हुआ वह वृद्धत्व के नजदीक पहुंच रहा था, उसकी यह चिंता क्रमशः वृद्धिंगत होती जा रही थी। वह जब-तब पुत्र को अपना हिंसा का दर्शन समझाता, कुलधर्म की महत्ता बखाणता और उसे निभाने की प्रेरणा देता, पर सुलस पर इन सब बातों का कोई असर नहीं हुआ, प्रत्युत हिंसा के प्रति उसके मन में ग्लानि बढ़ती ही गई।
कालसौकरिक के काल-धर्म को प्राप्त हो जाने के पश्चात कौटुंबिक
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- आगे की सुधि लेइ
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