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________________ बोला- 'भाई ! पीछे की बात छोड़ो। आगे से रसोई आएगी, तब पहले तुम्हें भोजन कराऊंगा और बाद में मैं करूंगा। पर अभी तुम साथ चलो।' शर्त पक्की हो गई। चोर सेठ के साथ चला गया। थोड़ी देर पश्चात सेठ का नौकर भोजन लेकर आया । वचनबद्धता के अनुरूप सेठ ने पहले चोर को भोजन कराया, फिर खुद खाया। नौकर ने घर जाकर सारी बात सेठानी से कही। सेठानी को बहुत बुरा लगा। कारावास की अवधि पूरी हुई। सेठ छूटकर घर पहुंचा। सेठानी को खबर पड़ चुकी थी, पर उसने सेठ की कोई आव-भगत नहीं की। सेठ के भवन में प्रवेश कर देने पर भी सामने नहीं आई। सेठ को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह स्वयं उसके कक्ष में पहुंचा और उसने नाराजगी का कारण जानना चाहा। सेठानी बोली- 'मैं पुत्र की हत्या के दुःख से सूखकर कांटा बन रही हूं और आपको उसका कोई दर्द ही नहीं है । मानो वह मेरा ही पुत्र था, आपके कुछ लगता ही नहीं था।' सेठ पत्नी के कथन का आशय नहीं समझ पाया । उसने पूछा - 'ऐसी क्या बात हो गई, जिससे मुझे पुत्र का विरह न खलने की बात कह रही हो ?' सेठानी उसी भावप्रवाह में बोली- 'बात क्या आपसे अज्ञात है ? यदि आपको पुत्र से प्रेम होता तो आप पुत्र के हत्यारे को रसोई नहीं खिलाते।' अब सेठ को पत्नी की नाराजगी का कारण समझ में आया। उसने कहा- 'यदि एक दिन तुम कारावास में आ जाती तो इसका रहस्य स्वयं समझ लेती।' सेठानी ने पूछा - 'कैसे ? ' सेठ ने कहा - ' वहां मैं और वह पुत्र - हत्यारा चोर दोनों एक ही खोड़े में थे। यदि मैं उसे भोजन न कराता तो मेरी दूसरी आवश्यकताएं पूरी कैसे होतीं? और तो क्या, मेरा शौच का काम भी नहीं हो पाता। इसलिए मुझे मजबूर होकर ऐसा करना पड़ा । ' सेठानी ने अब पति की परिस्थिति समझी और समझते ही उसकी नाराजगी कपूर हो गई। अपने अशिष्ट व्यवहार के लिए उसने सेठ से क्षमा मांगी। बंधुओ ! इस उदाहरण से आप यह तथ्य समझ सकते हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए शरीर का पोषण करना आवश्यक है, क्योंकि शरीर और आत्मा दोनों एक खोड़े में हैं। यदि वह उसे उचित पोषण नहीं देगा तो स्वस्थ कैसे रहेगा? ऐसी स्थिति में वह ध्यान, स्वाध्याय, जप, सेवा, तपस्या आदि के रूप में साधना कैसे कर सकेगा ? पर यहां प्रायः आत्मा और पुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only १४७• www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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