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खुराक है, पर इससे शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है, क्योंकि शरीर की खुराक भोजन है।
__ हम प्रतिदिन भोजन करते हैं। क्यों ? शरीर को पोषण देने के लिए। हालांकि हमारा मूल लक्ष्य आत्म-विकास है, शरीर तो अंततः त्याज्य है, तथापि आत्म-विकास की दृष्टि से शरीर की भी अपनी एक उपयोगिता है। हम ध्यान, जाप, स्वाध्याय, सत्संग, तपस्या आदि शरीर से ही तो करते हैं। यदि शरीर न हो तो ये क्रियाएं नहीं की जा सकतीं। इसलिए शरीर के साथ समझौता करके चलना होता है। उसे सहयोगी के रूप में पोषण देना आवश्यक होता है। हां, उसके प्रति हमारी आसक्ति न हो, इस दृष्टि से सजग रहने की अपेक्षा है। इसे स्पष्ट करने के लिए शास्त्रों में एक उदाहरण दिया गया है
चोर ने सेठ के बच्चे ही हत्या कर दी। चोर पकड़ा गया। राजाज्ञा से राजपुरुष उसे कारावास में ले गए। उस समय कारावास में खोड़े होते थे। चोर को एक खोड़े में डाल दिया गया। संयोग की बात। कुछ दिनों पश्चात वह सेठ भी जगात की चोरी के अपराध में पकड़ा गया और उसी खोड़े में डाल दिया गया। सेठ ने अपने पुत्र के हत्यारे को पहचान लिया। उसके प्रति सेठ के मन में आक्रोश बहुत था, पर अपनी परिस्थिति पर विचार करता हुआ वह शांत रहा।
सेठ संपन्न था। अतः रोजाना दोनों समय उसके घर से मनोज्ञ रसोई आती। चोर को भोजन मिलता प्रशासन की ओर से। वह मनोज्ञ नहीं होता था। सेठ को भोजन करते देखकर चोर के मुंह में पानी भर आता। एक दिन उसने सेठ से कहा-'आप भोजन का थोड़ा हिस्सा मुझे भी दें।' सेठ बोला-'तुम मेरे पुत्र के हत्यारे हो, मैं तुम्हें भोजन दूं, यह कैसे हो सकता है!' और उसने भोजन नहीं दिया।
सायंकाल सेठ को शौच-निवृत्ति के लिए जाने की आवश्यकता हुई। पर जाता कैसे? सेठ और चोर दोनों के पैर एक ही खोड़े में जो थे। सेठ ने चोर को चलने के लिए कहा तो वह इनकार हो गया। सेठ ने मिन्नतें की तो वह बोला-'घर का भोजन आपने किया है, मैंने नहीं। तब आप ही जाइए, मैं क्यों जाऊं? अब सेठ को अनुभव हुआ कि इसके चले बिना तो मैं इधर से उधर भी नहीं हो सकता, इसलिए इसे नाराज करना ठीक नहीं है। इसके साथ तो समझौता करके चलने में ही समझदारी है। वह
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- आगे की सुधि लेइ
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