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________________ स्वागमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किंतु माध्यस्थया दृशा।। जिस प्रकार किसी रोगी को देखकर कोई चिकित्सक इस भाषा में नहीं सोचता कि रोगी अपना है या पराया, बल्कि वह तटस्थ दृष्टि से उसका परीक्षण करता है, उसी प्रकार कोई तत्त्व सामने आए तो व्यक्ति यह न सोचे कि यह तत्त्व कहां से आया है। उस समय चिंतन यही होना चाहिए कि तत्त्व सही है या नहीं। स्याद्वाद के दृष्टिकोण से हर विचार अपेक्षाभेद से सही हो सकता है। वैचारिक उदारता का यह व्यापक सिद्धांत अपनाकर व्यक्ति वैचारिक स्तर पर उभरनेवाले अनेकानेक विवाद बहुत सहजता से सुलझा सकता है, विरोधी विचारधारा के लोगों के साथ बड़े सौहार्दपूर्ण ढंग से रह सकता है। अपेक्षा है, इस सिद्धांत को जीवन के हर स्तर पर व्यावहारिक आधार मिले। पुरुषार्थ : सफलता का सबसे बड़ा सूत्र __ दूसरा तत्त्व है-पुरुषार्थ। मैं इसे जीवन की सफलता का सबसे बड़ा सूत्र मानता हूं। नियतिवादी और ईश्वरवादी को भी जीवन की सफलता के लिए इसे महत्त्व देना होगा। जो पुरुषार्थ करता है, उसे उसका परिणाम भी मिलता है। आज भारतीय जनता इस पुरुषार्थ का तत्त्व भूलकर अकर्मण्य बन रही है। न केवल अध्यात्म के क्षेत्र में, अपितु लोक-क्षेत्र में भी यही स्थिति है। यह अकर्मण्यता राष्ट्र के विकास में बहुत बड़ी बाधा है। भगवान महावीर ने पुरुषार्थ पर सर्वाधिक बल दिया है। पुरुषार्थ छोड़ने से व्यक्ति का भाग्य सो जाता है। जो व्यक्ति पुरुषार्थवादी होता है, उसी का भाग्य जागता है। इस तत्त्व को स्वीकार करके व्यक्ति अपनी खोई निधि भी वापस पा सकता है। यही बात राष्ट्रीय संदर्भ में है। भारतवर्ष की जनता यदि यह सूत्र अपना ले तो वह अपनी खोई प्रतिष्ठा पुनः अर्जित कर सकती है, पर मुझे लगता है कि लोगों के चिंतन का प्रकार सम्यक नहीं है। व्यक्ति सोचता है कि सब लोग काम करते ही हैं, एक मैं न करूं तो क्या फर्क पड़ता है। इसका परिणाम यह होता है कि अच्छी-से-अच्छी योजना भी क्रियान्विति के बिंदु तक नहीं पहुंच पाती। . राजा के मन में विचार उभरा कि पानी के तालाब तो सभी जगह होते हैं, मेरे राज्य में एक दूध का तालाब भी होना चाहिए। बस, उसने आदेश जारी कर दिया कि शहर के बाहर खाली तालाब में नगर का आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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