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प्रत्येक नागरिक कल सूर्योदय से पहले-पहले एक लोटा दूध डाले। दूसरे दिन सूर्योदय हुआ। राजा बड़ी उत्सुकता के साथ तालाब पर पहुंचा। पर यह क्या! तालाब दूध के स्थान पर पानी से लबालब भरा हुआ था। हुआ यह कि राजाज्ञा सुनकर एक व्यक्ति के मन में विचार आया कि जब हजारों-हजारों लोटे दूध तालाब में गिरेंगे ही, तब यदि मैं एक लोटा दूध के स्थान पर एक लोटा पानी डाल दूं तो क्या फर्क पड़ता है। पर उसने यह नहीं सोचा कि ऐसा ही विचार दूसरे लोगों के मन में भी उठ सकता है। योग ऐसा ही मिला कि नगर के प्रत्येक नागरिक के मन में उस व्यक्ति का विचार संक्रांत हो गया। सभी ने दूध के स्थान पर तालाब में पानी का लोटा डाल दिया ।
बंधुओ ! आप पूछ सकते हैं कि क्या यह घटना सच्ची है। मैं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि यह घटना सच्ची है, पर यह बात निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि इसमें एक बहुत बड़ा तथ्य छिपा हुआ है। आम आदमी की यह मनोवृत्ति होती है कि वह सफलता तो प्राप्त करना चाहता है, पर वहां तक पहुंचने के लिए स्वयं सही दिशा में पुरुषार्थ करना नहीं चाहता। वह दूसरों की वैशाखी के सहारे वहां तक पहुंचने की बात सोचता है। यह मनोवृत्ति उसे लक्ष्य तक नहीं पहुंचने देती । जरूरत तो यह है कि व्यक्ति शुभ शुरुआत स्वयं से करे। यदि व्यक्ति स्वयं से शुभ शुरुआत करने की मानसिकता बना लेता है तो कठिन से कठिन कार्य भी आसान हो जाता है। कोई मंजिल उससे दूर नहीं रहती। आज की परिस्थितियों में भारतीय नागरिकों के लिए इस सूत्र को अपनाना अत्यंत आवश्यक है। इसे अपनाने से अकर्मण्यता को कहीं कोई अवकाश नहीं रहेगा; और जब यह बाधा दूर हो जाएगी तो राष्ट्र अपने आप विकास की राह पर अग्रसर हो जाएगा।
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हम साधु-संत लोग पुरुषार्थ का जीवन जीते हैं। पर हमारा पुरुषार्थ केवल आध्यात्मिक होता है, क्योंकि हमारा उद्देश्य मात्र आत्मोदय है, परंतु जन-साधारण आत्मोदय के साथ-साथ सामाजिक अपेक्षाओं का भी चिंतन करता है। इसलिए उसे आध्यात्मिक पुरुषार्थ के साथ-साथ लौकिक पुरुषार्थ भी करना होता है। इस क्षेत्र में भी पुरुषार्थ को भूलकर वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता ।
स्याद्वाद और पुरुषार्थवाद की संक्षिप्त चर्चा मैंने की। इन दोनों
जीवन की सफलता के दो आधार
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