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________________ तक वह अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त नहीं कर सकती। जननी और जन्मभूमि का गौरव | जिस समय राम ने रावण के साथ युद्ध करके विजय पाई और विजेता बनकर लंका आए तो लोगों ने सोचा कि राम रत्नों के कंगूरोंवाली इस सोने की लंका को अपनी राजधानी बनाएंगे। शायद लक्ष्मण ने भी कहा होगा कि अयोध्या तो अब खंडहर हो रही है, अतः यहीं अपनी राजधानी बना लें। पर राम का चिंतन इससे सर्वथा भिन्न रहा अपि स्वर्णमयी लंका, न मे लक्ष्मण! रोचते। जननी-जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी।। - लक्ष्मण! यह लंका स्वर्णमयी है, बहुत सुंदर है, फिर भी मुझे अच्छी नहीं लगती, क्योंकि जननी और जन्मभूमि को मैं स्वर्ग से भी अधिक महान मानता हूं। अतः अयोध्या को कभी नहीं भूल सकता। यह बात सहस्रों वर्ष पूर्व वाल्मीकि ने रामायण में लिखी। भारतीय लोग अनुकरणप्रधान होते हैं। उन्होंने इस श्लोक के अंतिम दो पद पकड़ लिए और जननी-जन्मभूमि के गौरव के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर कैसी विडंबना है कि आज वे इन दोनों की दुर्दशा देख रहे हैं! ___ मातृजाति के प्रति अपना कर्तव्य लोग कहां तक निभा रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। कहने को तो वे यह कह देते हैं कि हमने तो मातजाति को महत्त्व दिया है, इसीलिए तो पैंतालीस करोड़ जनता के नेतृत्व की बागडोर एक स्त्री (श्रीमती इंदिरा गांधी) के हाथों में सौंपी है, लेकिन मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या आज भी मातृजाति अंधपरंपराओं की जंजीरों में जकड़ी हुई नहीं है, उसकी मनोवृत्ति भीरु और गुलामी की नहीं है; उसमें शिक्षा, साहस और शौर्य की कमी नहीं है, क्या यही उसके प्रति कर्तव्य-निर्वहन हो रहा है। अनेक व्यक्ति बहिनों के प्रति अपमान-भरी बातें कहते हैं। कई लोग तो उनकी पिटाई भी कर देते हैं। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः-यह बात मात्र कहने के लिए रह गई है। यह स्थिति निराशाजनक है। यद्यपि मैं सभी क्षेत्रों में नारी और पुरुष की बराबरी की बात नहीं करता, तथापि यह आवश्यक मानता हूं कि नारी को विकास का पूरा अवसर और अधिकार मिले, उसकी विशेषताओं का सही-सही मूल्यांकन हो और उसके सम्मान की रक्षा की जाए। .११२ . आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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