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________________ १७ : जैन-धर्म और अहिंसा 'धर्म' संसार के बहुचर्चित शब्दों में से एक है। आज अनेक धर्म हमारे सामने हैं। लोगों की मनोवृत्ति यह है कि वे अपने-अपने धर्म को सबसे प्राचीन स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। मेरे से भी कई बार पूछा जाता है कि सबसे प्राचीन धर्म कौन-सा है। जैन-तीर्थंकरों के समक्ष भी संभवतः यह प्रश्न उपस्थित हुआ था। इसके समाधान में उन्होंने यह नहीं कहा कि जैन-धर्म सबसे प्राचीन है। फिर उन्होंने क्या कहा? उन्होंने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा-सव्वे पाणा ण हंतव्वा-एस धम्मे धुए णियए सासए। अर्थात किसी प्राणी का हनन मत करो यह अहिंसा धर्म ध्रुव है, नित्य है और शाश्वत है। यदि गहराई से देखा जाए तो धर्म के साथ पुराने और नए के विशेषण जोड़ना गलत है। वास्तव में धर्म पुराना और नया होता ही नहीं। वह तो एक त्रैकालिक सत्य है। नए और पुराने होते हैं संप्रदाय। संप्रदाय धर्म की सुरक्षा और प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से खड़े होते हैं। यहां गंभीरता से समझने की बात यह है कि अहिंसा आदि धर्म के मौलिक तत्त्वों के साथ उनका कोई सीधा संबंध नहीं है। हिंसा के तीन प्रकार जहां अहिंसा की बात आती है, वहां हिंसा की बात स्वतः आ जाती है। अहिंसा हिंसा के अभाव का ही नाम है। हिंसा से उपरत होना ही तो अहिंसा है। हिंसा का नाम आते ही लोगों का ध्यान सीधा प्राण-वध की ओर जाता है। मैं मानता हूं, प्राण-वध निश्चित रूप से हिंसा है, पर मात्र प्राण-वध हिंसा नहीं है। यह तो हिंसा का एक रूप है, कायिक हिंसा है। जैन-तीर्थंकरों ने कायिक हिंसा से आगे वाचिक हिंसा और मानसिक हिंसा का भी सविस्तार विवेचन किया है। उन्होंने कहा कि मारने की तरह ही किसी को अपशब्द कहना भी हिंसा है, उसके प्रति दुश्चिंतन करना भी जैन-धर्म और अहिंसा -१०५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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