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________________ आनंद देते हैं। इसी लिए तो कवि ने कहा है यथा किराती करिकुम्भजातां, मुक्तां परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाम्। तत्त्वतः कोई पदार्थ अपने-आपमें तृप्तिदायी या अतृप्तिदायी कुछ भी नहीं होता। वह तो अपने गुण-धर्म में अवस्थित रहता है। यह तो व्यक्ति की अपनी दृष्टि या वृत्ति है, जो उसे तृप्तिदायी बना देती है, अनुकूल और प्रतिकूल बना देती है। दूसरे वृक्ष वर्षा के पानी से हरे-भरे हो जाते हैं, पर आक वृक्ष के पत्ते वर्षा होने पर झड़ जाते हैं, इसी लिए बादलों को संबोधित करते हुए आक वृक्ष कहते हैं त्वयि वर्षति पर्जन्य! सर्वे पल्लविताः द्रुमाः। __ अस्माकमर्कवृक्षाणां, पूर्वपत्रेऽपि संशयः॥ बंधुओ! आप यह बात हृदयंगम करें कि पदार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता सबके लिए समान नहीं हो सकती। इस स्थिति में सुख से जीने का मार्ग यही है कि व्यक्ति संतोष की वृत्ति बढ़ाए। जहां संतोषवृत्ति विकसित हो जाती है, वहां प्रतिकूल पदार्थों से घिरा रहकर भी व्यक्ति दुखी नहीं होता। इसके विपरीत अनुकूलताओं से घिरा रहकर भी व्यक्ति तृप्त नहीं हो सकता, यदि उसके मन में संतोष नहीं है। इसलिए कहा गया-संतोषी परमसुखी। सिरसा २८ फरवरी १९६६ .१०४ - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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