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________________ १६ : संतोषी : परमसुखी साधक वह होता है, जो धर्म की आराधना करता है। प्रश्न होता है कि धर्म की आराधना का परिणाम क्या है। कुछ लोग धन-वैभव, यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि को धर्माराधना का परिणाम मानते हैं, पर मेरे विचार में इन सब चीजों की प्राप्ति धर्माराधना का वास्तविक परिणाम नहीं है। यह प्राप्ति तो आनुषंगिक परिणाम है। जो लोग धन-वैभव आदि को धर्माराधना का परिणाम मानते हैं, वे मेरी दृष्टि में बहुत बड़ी भूल करते हैं। धर्माराधना का परिणाम है-शांति या संतोष। जिस दिन व्यक्ति को संतोष मिल जाता है, उस दिन दूसरे सभी प्रकार के धन धूल के समान हो जाते हैं। कवि ने कहा है गोधन गजधन वाजिधन, और रतनधन खान। जब आए संतोषधन, सब धन धूलि समान।। गहराई से देखा जाए तो वास्तविक धन संतोष ही है, पर वह कोई बाहर से प्राप्त होनेवाला तत्त्व नहीं है। यह तो अपनी आत्मा में होता है, अपनी वृत्ति से संबद्ध रहता है। जहां एक व्यक्ति लाखों-करोड़ों की संपत्ति के बावजूद धन बटोरने के लिए बेतहाशा दौड़ता रहता है, वहीं दूसरा व्यक्ति कल के खाने-पीने की भी चिंता नहीं करता, उसके लिए संग्रह नहीं करता। यह व्यक्ति-व्यक्ति की वृत्ति के अंतर का परिणाम है। यहां यह बात भी समझ लेने की है कि पदार्थसापेक्ष सुख या तृप्ति भी एक सरीखी नहीं होती। जिस पदार्थ को प्राप्त करके अथवा उसका उपभोग करके एक व्यक्ति तृप्ति का अनुभव करता है, उसी पदार्थ की प्राप्ति और उपभोग की स्थिति में दूसरा व्यक्ति तृप्ति की अनुभूति नहीं भी करता। वह उसे सर्वथा अरुचिकर और अप्रिय लगता है। एक भीलनी मोतियों के आभूषण छोड़कर गुंजाओं के आभूषण पहनती है। कारण यही तो है कि उसे मोतियों के आभूषण आनंद नहीं देते, गुंजाओं के आभूषण संतोषी : परमसुखी .१०३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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