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हिंसा है। इसलिए उन्होंने कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार की हिंसा से बचने का उपदेश दिया।
हिंसा : हिंसा का परिणाम
हिंसा के संदर्भ में एक बात और समझ लेने की है। जीव के मरने से उसका कोई सीधा संबंध नहीं है। वह तो हिंसा का एक परिणाम है। परिणाम के आधार पर हिंसा का निर्णय नहीं किया जा सकता, क्योंकि परिणाम कभी सामने आता है और कभी नहीं भी आता । एक पक्षी वृक्ष की शाखा पर बैठा था। शिकारी आया और उसने निशाना साधकर गोली चला दी, पर गोली उसके लगती, उससे पूर्व ही वह उड़ गया । परिणामतः वह मरा नहीं, पर इसके बावजूद हम ऐसा नहीं कह सकते कि शिकारी को हिंसा का पाप नहीं हुआ । मूलतः हिंसा का सीधा संबंध व्यक्ति की वृत्ति से है, उसके व्यवहार और आचरण से है। एक वाक्य में कहा जाए तो व्यक्ति की दुष्प्रवृत्ति हिंसा है। वह दुष्प्रवृत्ति मन के स्तर पर हो सकती है, वचन के स्तर पर हो सकती है और काया के स्तर पर भी हो सकती है। यदि व्यक्ति किसी स्तर पर दुष्प्रवृत्ति करता है तो वह हिंसा है, चाहे परिणाम के रूप में वह किसी को दिखाई दे या न भी दे।
अहिंसा : अहिंसा का परिणाम
अहिंसा के संदर्भ में भी यह बात है । जीव का बचना अहिंसा नहीं है । वह तो अहिंसा का परिणाम है। अहिंसा है सब जीवों के प्रति संयम करना; मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों से उपरत होना। आप उदाहरण से समझें । एक व्यक्ति ने उपवास का प्रत्याख्यान किया। भोजन पहले से बना हुआ था । इस स्थिति में उसके हिस्से का भोजन बच गया, पर यह भोजन बचना धर्म नहीं है। धर्म है उसका उपवास करना, भोजन का परित्याग करना । भोजन का बचना तो इस उपवास का प्रासंगिक परिणाम है। ठीक यही बात अहिंसा के बारे में जाननी चाहिए। जीव का बचना अहिंसा नहीं है। वह तो अहिंसा का परिणाम है। अहिंसा है- अपनी आत्मा को दुष्प्रवृत्तियों से बचाना, समस्त जीव-जगत के प्रति संयमित होना ।
अहिंसा के दो रूप
अपने प्रवचनों में मैं हिंसा - अहिंसा की बार-बार चर्चा करता हूं।
आगे की सुधि लेइ
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