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निकम्मे बैठकर बातें करनेवालों को देखकर ही हमारे मन में यह विचार आया कि यहां की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी है, अन्यथा लोग निकम्मे क्यों रहते। उनके तर्क के समक्ष मैं निरुत्तर था।' श्रम करना जरूरी है
हम लोग साधु हैं। ढाणी-ढाणी, गांव-गांव, शहर-शहर पैदल घूमकर जनता को धर्म का संदेश सुनाते हैं। हमारे इस पैदल भ्रमण को देखकर बहुत-से लोग हमसे प्रार्थना के स्वर में कहते हैं-'यह कठिन तपस्या आप छोड़ दें। आजकल वाहनों की कमी तो है नहीं, फिर बेकार पैदल यात्रा का कष्ट क्यों उठाते हैं?' उनकी प्रार्थना सुनकर मैं कहता हूं-'हमारा शारीरिक श्रम देखकर आपको दुःख होता है, यह व्यामोह है। जब हमें काम करना है, फिर शारीरिक श्रम तो करना ही होगा। उससे कतराने से या बचने की चेष्टा करने से हम काम कैसे कर सकेंगे? यह श्रम करना तो जरूरी है। इसमें कष्ट होता है तो भले हो। उसे सहना हमारा आत्मधर्म है।'
आज प्रायः लोगों की स्थिति यह है कि वे शारीरिक श्रम से जी चुराते हैं। उनकी मानसिकता बाबू बनने की है, टेबुल-कुर्सी तोड़ने की है, हुकूमत करने की है। एक व्यक्ति प्रतिदिन चर्च में जाता और ईशु से प्रार्थना करता-'महाप्रभो! मैं जनता की सेवा करना चाहता हूं। इसलिए मेहरबानी करके ऐसा वरदान दें, जिससे मैं सेवा के कार्य में जुट जाऊं।' चर्च के पादरी ने उसकी बात सुनी। एक दिन वह उस व्यक्ति के पास आया और उससे उसने कहा-'बोलो कि क्या चाहते हो।' वह व्यक्ति बोला-'सेवा करना चाहता हूं।' पादरी ने कहा-'देखो, महाप्रभु यीशु ने मेरे माध्यम से कहलवाया है कि चर्च में कूड़ा बहुत है और तुम्हारी सेवा करने की तीव्र भावना है। अतः तुम तीन दिनों में चर्च साफ कर दो।'
पादरी के निदेशानुसार वह व्यक्ति चर्च की सफाई के काम में लग गया। चौथे दिन पादरी ने देखा कि चर्च बिलकुल साफ है, पर वह व्यक्ति महाप्रभु से प्रार्थना कर रहा है कि मुझे सेवा का वरदान दें, पर यह झाड़ लगाने की सेवा का नहीं। मुझे तो हुकूमत करने की सेवा मिलनी चाहिए।
बंधुओ! मैं मानता हूं कि यह श्रम से जी चुराने की मनोवृत्ति बहुत घातक है। इससे न केवल व्यक्ति की शक्तियां कुंठित हो जाती हैं, बल्कि उसका जीवन भी स्वयं के लिए भारभूत-सा बन जाता है। ऐसी स्थिति में सुख और शांति की अनुभूति का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। यह कैसी
आत्मा: महात्मा : परमात्मा
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